
गुरुवाणी/ केन्द्र
शरीर की सार्थकता, उसकी आध्यात्मिक उपयोगिता में है : आचार्यश्री महाश्रमण
जिन शासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ लगभग 9 किमी का विहार कर तलोद के चंपा-केशव विशामो में पधारे। पावन देशना प्रदान करते हुए पूज्यवर ने फरमाया कि हमारी आत्मा अनादि-अनन्त काल से इस संसार में है। शाश्वत रूप से आत्मा संसार में अनन्त काल से थी, है और रहेगी। इसकी कोई आदि नहीं है। आत्मा–जीव शाश्वत है। कोई ऐसा समय नहीं आएगा जब जीव समाप्त हो जाएगा। जितने जीव हैं, उतने ही जीव अनन्त-अनन्त काल बाद भी रहेंगे। न तो एक भी जीव कम होता है और न ही कोई नया जीव उत्पन्न होता है। यह शाश्वता, नियमितता और परिमितता जैन दर्शन के सिद्धांत हैं। केवल जीव ही नहीं, अपितु पुद्गल जगत में प्रदेश–परमाणु भी जितने अनन्त काल पहले थे, उतने ही अनन्त काल बाद भी रहेंगे। न तो कोई परमाणु–प्रदेश नया उत्पन्न होगा और न ही कोई कम होगा। इस सृष्टि में नया कुछ पैदा नहीं होता, केवल पर्याय परिवर्तन होता है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के जितने प्रदेश हैं, वे सदा वैसे ही रहेंगे। परिस्थितियाँ और समय बदलते हैं – यह पर्याय का स्वरूप है। मूल तत्व वही रहते हैं, केवल उनका रूपांतरण होता है। जैसे दो वर्ष का बच्चा बयासी वर्ष का हो जाता है। हमारे भीतर आत्मा है और यह शरीर पुद्गल से बना है। यह शरीर एक दिन नष्ट हो जाएगा, पर आत्मा के प्रदेश तो शाश्वत हैं। कुछ दिन पहले अहमदाबाद में विमान दुर्घटना हुई — यह नियति और कर्म का योग है, जिसमें अनेक लोग एक साथ कालधर्म को प्राप्त हो गए।
अध्यात्म की दृष्टि से हम कामना करते हैं कि वे आत्माएं ऊर्ध्वगति को प्राप्त करें। उनकी आत्मा में शांति रहे और उनके परिजनों के चित्त में भी शांति बनी रहे। पूज्यवर ने उन आत्माओं की शांति हेतु ध्यान का प्रयोग करवाया। हम शरीर को इस उद्देश्य से धारण करें कि आत्मा का कल्याण कर सकें। अध्यात्म की साधना में शरीर का सहयोग आवश्यक है। शरीर है तो साधुपना पलता है, श्रावकत्व फलित होता है। हमारा लक्ष्य हो कि पूर्व कर्मों के क्षय (निर्जरा) के लिए इस शरीर का उपयोग करें। अणुव्रत के छोटे-छोटे नियम जीवन में आएं। जीवन में सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति रहे। प्रेक्षाध्यान से समभाव में रहें। गुरुदेव तुलसी 42 वर्ष पूर्व तलोद पधारे थे। आज हमारा आना हुआ है। यहाँ के लोगों में धर्मभावना बनी रहे। संवर-निर्जरा की साधना करें। जीवन में सादगी और संयम रहे। इस शरीर को पूर्व कर्मों के क्षय हेतु उपयोग करें। मानव जीवन का धार्मिक दृष्टि से लाभ उठाएँ — यही कल्याणकारी होगा। साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभाजी ने अपने मंगल उद्बोधन में कहा कि पूज्य गुरुदेव ने गुजरात की इस यात्रा को स्वीकार किया और हम सभी ने तलोद को देखा। तलोद समणी भावितप्रज्ञाजी से जुड़ा है। वे क्षेत्र धन्य हो जाते हैं, जहाँ गुरु के चरण पड़ते हैं। वे व्यक्ति भी धन्य होते हैं, जो अपने क्षेत्र में गुरु का दर्शन करते हैं। गुरु के बिना ब्रह्मज्ञान तो क्या, सामान्य ज्ञान भी संभव नहीं है। साधना-पथ हमें गुरु ही दिखा सकते हैं। भारत की हर परंपरा में गुरु को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। पूज्यवर के स्वागत में स्थानीय तेरापंथ समाज की ओर से मुकेश भाई, उत्तर गुजरात तेरापंथ समाज के अध्यक्ष गणपतलाल दूगड़, चेतन दूगड़, प्रिंस चपलोत, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज के अध्यक्ष सतीश शाह, वर्धमान स्थानकवासी समाज के अध्यक्ष भेरूलाल धाकड़, रिंपल देसरड़ा, निकिता चपलोत व भरत ब्रह्मभट्ट ने अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त कीं। बालक कियान चपलोत ने अपनी प्रस्तुति दी। स्थानीय तेरापंथ महिला मण्डल ने स्वागत गीत का संगान किया। ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपनी भावपूर्ण प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।