
गुरुवाणी/ केन्द्र
अनासक्ति ही है आत्मकल्याण का मूल आधार : आचार्यश्री महाश्रमण
अहमदाबाद की ओर गतिमान तेरापंथ के महासूर्य आचार्यश्री महाश्रमणजी लगभग 9 किमी का विहार कर हरसोल के सी.आर. भगत विद्यालय के प्रांगण में पधारे। पावन प्रेरणा-पाथेय प्रदान करते हुए शांतिदूत ने फरमाया कि आसक्ति और अनासक्ति — ये दो मार्ग हैं। आसक्ति बंधन का मार्ग है और अनासक्ति बंधन-मुक्ति का मार्ग है। व्यक्ति जितना पाँच विषयों में आसक्त होता है, वह बंधन में बंध जाता है और जितना वह इनसे मुक्त रहता है, उतना ही बंधन से मुक्त हो जाता है। इसको दो मिट्टी के गोले — एक गीला और एक सूखा — के उदाहरण से समझाया गया है। गीली मिट्टी का गोला दीवार से चिपक जाता है और सूखी मिट्टी का गोला नहीं चिपकता। शरीर की सुरक्षा के लिए अनेक पदार्थों की अपेक्षा रहती है, परंतु ध्यान यह देना है कि उन पदार्थों के प्रति मोह या आसक्ति है या नहीं। किसी के प्रति ममत्व या राग-द्वेष आना बंधन का मार्ग है।
पदार्थों का उपयोग करते हुए भी जो अनासक्त रहता है, जिसमें मोह नहीं होता — वही साधना का मार्ग है। शरीर की अपेक्षा है, तो पदार्थों का उपयोग या उपभोग करना पड़ेगा, परंतु उन्हें अपनाते हुए भी व्यक्ति निर्मोह रहने का प्रयास करे। ज्योंही मोह की प्रवृत्ति होती है, वह बंधन का कारण बन जाती है। हाल ही में अहमदाबाद में एक विमान दुर्घटना की विशेष घटना हुई, जिसमें सैकड़ों लोग कालधर्म को प्राप्त हो गए। सामान्य भाव से करुणा उत्पन्न हो सकती है कि कितने लोग मर गए, पर जब यह पता चलता है कि उसमें मेरा भाई या बेटा था, तो दुःख और गहरा हो जाता है। राग-द्वेष का बंधन आगे के कई जन्मों तक चल सकता है। राग-द्वेष 'मोह' के परिवार के सदस्य हैं, जिसमें क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अन्य सदस्य भी हैं। हम जीवन में अनासक्ति के विकास का प्रयास करें। Need or Want — आवश्यकता और इच्छा को समझें।
आवश्यकता की पूर्ति संभव है, परंतु इच्छाएं अनंत हो सकती हैं। जीवन में संयम हो, इच्छाएं कम हों और आवश्यकताएं भी सीमित रहें। खान-पान और उपकरणों में भी सीमितता (ऊनोदरी) होनी चाहिए। जीवन में इच्छा-परिमाण और उपभोग-परिभोग परिमाण का विवेक हो। परिग्रह के प्रति भी आसक्ति कम हो और मन में त्याग (विसर्जन) का भाव रहे। गुरुदेव तुलसी ने तो पद का ही विसर्जन कर दिया था। मूर्च्छा और आसक्ति ही परिग्रह हैं। श्रावक के तीन मनोरथ होते हैं — पहला: कब मैं अल्पपरिग्रही बनूंगा? दूसरा: कब मैं साधु बनूंगा? और तीसरा: कब मैं संथारा पूर्वक समाधिकरण को प्राप्त करूंगा? धर्म की अवस्था में प्राण छूटें और आत्मा के लाभ से वंचित न रहें — यह भावना रहे। हमें अनासक्ति में अधिकाधिक रहने का प्रयास करना चाहिए। पूज्यवर के स्वागत में कल्पेशभाई, वसंतभाई, विपुलभाई पटेल ने अपनी भावनाएं अभिव्यक्त कीं। प्रांतीज ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने सुंदर प्रस्तुति दी। बालक दक्ष बाबेल ने अपनी बालसुलभ प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।