श्रमण महावीर

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

श्रमण महावीर

'भंते! फिर लम्बे समय तक शून्य में रहने का क्या अर्थ है?'
'गौतम! उसका अर्थ था शून्य को भरना। अपनी शून्यता को भरे बिना दूसरों की शून्यता को भरा नहीं जा सकता। मैं साधना-काल में लगभग अकेला रहा। न सभा में उपस्थिति, न प्रवचन और न संगठन। तत्त्व-चर्चा भी बहुत कम। मैंने साधना-काल का बारहवां चातुर्मास चम्पा में बिताया। मैं स्वातिदत्त ब्राह्मण की अग्नि-होत्र शाला में रहा।
एक दिन स्वातिदत्त ने पूछा-
'भंते! आत्मा क्या है?'
'जो अहं (मैं) का अनुभव है, वही आत्मा है।'
'भंते! वह कैसा है?'
'सूक्ष्म है।'
'भंते! सूक्ष्म का अर्थ?'
'जो इन्द्रियों द्वारा गृहीत नहीं होता।'
'भंते! इसका साक्षात्कार कैसे किया जा सकता है?'
'मैं इसी प्रयत्न में लगा हूं।'
स्वातिदत्त आत्मा की खोज में लग गया।
मुझे आत्मा ही प्रिय रहा है। इसलिए मैंने स्वयं उसकी खोज की है और यदा-कदा दूसरों को उस दिशा में जाने को प्रेरित किया है।
मैंने साधना के दूसरे वर्ष में एक शिष्य भी बनाया। उसका नाम था मंखलिपुत्र गोशालक। वह कुछ वर्षों तक मेरे साथ रहा। फिर उसने मेरा साथ छोड़ दिया। मैंने गोशालक के साथ कुछ बातें की, उसके प्रश्नों का उत्तर दिया, अपने अतीन्द्रिय ज्ञान का थोड़ा-थोड़ा परिचय कराया और आंतरिक शक्ति के कुछ रहस्य भी सिखाए।
'भंते! यह प्रकरण बहुत ही दिलचस्प है, मैं इसे थोड़े विस्तार से सुनना चाहता, मैं विश्वास करता हूं, भगवान् मुझ पर कृपा करेंगे।'
हूं। 'गौतम! गोशालक आज नियतिवादी हो गया। नियतिवाद के बीज एक दिन
मैंने ही बोए थे।'
'भंते! यह कैसे?'
'गौतम! एक बार हम (मैं और गोशालक) कोल्लाग सन्निवेश से सुवर्णखल की ओर जा रहे थे। मार्ग में एक स्थान पर ग्वाले खीर पका रहे थे। गोशालक ने मुझे रोकना चाहा। मैंने कहा-खीर नहीं पकेगी, हांड़ी फट जाएगी।
मैं आगे चला गया। गोशालक वहीं रहा। उसने ग्वालों को सावधान कर दिया। ग्वालों ने हांडी को बांस की खपाचों से बांध दिया। हांडी दूध से भूरी थी। चावल अधिक थे। वे फूले तब हांडी फट गई। खीर नीचे ढुल गई। गोशालक के मन में नियति का पहला बीच-वपन हो गया। उसने सोचा जो होने का होता है वह होकर ही रहता है। ऐसी अनेक घटनाएं घटित हुई। एक-दो मुख्य घटनाएं ही मैं तुम्हें बता रहा हूं।
एक बार हम लोग सिद्धार्थपुर से कूर्मग्राम जा रहे थे। रास्ते में एक खेत आया। उसमें सात पुष्प वाला एक तिल का पौधा था। गोशालक ने मुझे पूछा, 'क्या यह फलेगा?' मैंने कहा- 'अवश्य फलेगा। इसके सात पुष्पों के सात जीव एक ही फली में उत्पन्न होंगे।'
मैं आगे बढ़ गया। गोशालक पीछे की ओर मुड़ा। उमने उस खेत में जा तिल के पौधे को उखाड़ दिया।
हम कुछ दिन कूर्मग्राम में ठहरकर वापस सिद्धार्थपुर जा रहे थे। फिर वही खेत आया। गोशालक ने कहा- 'भंते! वह तिल का पौधा नहीं फला, जिसके फलने की आपने भविष्यवाणी की थी।'
मैंने सामने की ओर उंगली से संकेत कर कहा- 'यह वही तिल का पौधा है, जिसके फलने की मैंने भविष्यवाणी की थी और जिसे तुमने उखाड़ा था।'
गोशालक को मेरी बात पर विश्वास नहीं हुआ। वह उस पौधे के पास गया। उसकी फली को तोड़कर देखा। उसमें सात ही तिल निकले। वह स्तब्ध रह गया उसने आश्चर्य के साथ पूछा- 'भंते! यह कैसे हुआ?' मैंने उसे बताया 'तुम उस पौधे को उखाड़कर आ गए। थोड़ी देर के बाद वर्षा हुई। उधर से एक गाय आई। उसका खुर उस पर पड़ा। वह जमीन में गड़ गया।'