धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाश्रमण

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

एक दृष्टान्त इस प्रकार है-
उज्जयिनी के पास नटों का एक गांव था। उसमें भरत नामक एक नट रहता था। उसकी पत्नी का देहान्त हो गया। उसके एक छोटा पुत्र था, उसका नाम था रोहक। भरत ने दूसरा विवाह किया। रोहक की नयी मां रोहक के साथ ठीक व्यवहार नहीं करती। उससे दुःखी होकर रोहक ने एक दिन उसे कहा-मां! तू मेरे साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार नहीं करती, यह ठीक नहीं है। मां ने उसकी बात को गम्भीरता से नहीं लिया और कहा- मैं यदि ठीक व्यवहार नहीं करती तो तू मेरा क्या बिगाड़ लेगा? रोहक अपनी करामात दिखाने का अवसर ढूंढ़ने लगा। एक दिन रात्रि के समय यह अपने पिता के पास सोया हुआ था कि अचानक बोलने लगा पिताजी! यह देखो, कोई आदमी दौड़ रहा है। बालक की बात सुनकर नट को अपनी स्त्री के चरित्र के प्रति शंका हो गई। उसी दिन से उसने उसके साथ अच्छी तरह बोलना भी बन्द कर दिया। इस प्रकार पति को अपने से मुंह मोड़े हुए देखकर वह समझ गई कि यह सब रोहक की ही करामात है। बिना इसे प्रसन्न किए काम नहीं चलेगा। ऐसा सोचकर उसने अनुनयपूर्वक भविष्य के लिए सद्व्यवहार का आश्वासन देते हुए बालक को संतुष्ट किया। प्रसन्न होकर रोहक भी पिता की शंका दूर करने के लिए एक दिन चांदनी रात में अंगुली से अपनी छाया दिखाते हुए पिता से कहने लगा कि पिताजी! देखो, यह कोई आदमी जा रहा है। सुनते ही नट ने उस पुरुष को मारने के लिए क्रोध में आकर म्यान से तलवार निकाली और बोला-कहां है वह लंपट जो मेरे घर में घुसकर धर्म नष्ट करता है? दिखा, अभी उसे इस लोक से विदा कर देता हूं। रोहक ने उत्तर में अंगुली से अपनी छाया को दिखाते हुए कहा कि यह है वह लंपट। छाया को पुरुष समझने की बालचेष्टा देखते ही भरत लज्जित होकर सोचने लगा कि अहो! मैंने व्यर्थ ही बालक के कहने से अपनी पत्नी के साथ अप्रीति का व्यवहार किया। इस प्रकार पश्चात्ताप करने के बाद भरत अपनी पत्नी से पूर्ववत् प्रेम-व्यवहार करने लगा।
रोहक के ऐसे अनेक दृष्टान्त मिलते हैं। वैनयिकी आदि बुद्धियों का स्वरूप समझाने के लिए भी विभिन्न दृष्टान्त दिए गए हैं।
मतिज्ञान का उपसंहार करते हुए आचार्य कहते हैं- शब्द स्पष्ट (छूने पर) ही सुना जाता है। रूप अस्पष्ट ही देखा जाता है। गंध, रस और स्पर्श स्पृष्ट एवं बद्ध ही जाने जाते हैं।
पुटुं सुणेइ सद्द, रूवं पुण पासइ अपुटुं तु। 
गंध रसं च फासं च बद्धपुटुं वियागरे ।।
श्रुतज्ञान के अन्तर्गत अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य आगमों का उल्लेख है। द्वादशांगी के प्रत्येक आगम का संक्षिप्त विवरण भी इस आगम में उपलब्ध है। इस आगम का ग्रन्थ परिणाम लगभग ६२५ अनुष्टुप श्लोक परिमाण है। इसके रचयिता देववाचक अथवा देवर्धिक्षमाश्रमण माने गए हैं। इस लघुकाय आगम से जैनज्ञानमीमांसा की विशद जानकारी प्राप्त की जा सकती है।