राग-द्वेष को प्रतनु करने से होता है गुणस्थानों में विकास : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

शाहीबाग, अहमदाबाद। 30 जून, 2025

राग-द्वेष को प्रतनु करने से होता है गुणस्थानों में विकास : आचार्यश्री महाश्रमण

सप्त दिवसीय शाहीबाग प्रवास का चतुर्थ दिवस। तेरापंथ सम्राट आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपनी अमृत देशना में फरमाया कि आदमी और प्राणी के भीतर दो वृत्तियाँ होती हैं — राग और द्वेष। जब तक वीतरागता प्राप्त नहीं होती, तब तक राग-द्वेष विद्यमान रहते हैं। तात्त्विक दृष्टि से भी बात करें तो ग्यारहवें गुणस्थान में राग-द्वेष उदय स्थिति में तो नहीं रहते, किन्तु भीतर में उनकी सत्ता बनी रहती है। बारहवां गुणस्थान प्राप्त होने पर राग-द्वेष पूर्णतया निर्मूल हो जाते हैं— वहाँ उनका कोई भी अंश शेष नहीं रहता। ग्यारहवां गुणस्थान कोई बहुत स्थायी अवस्था नहीं है — वह थोड़े समय का होता है। उसके पश्चात मोह का पुनः उदय होता ही है। जैसे बंद गली में लौटना ही पड़ता है, वैसे ही ग्यारहवें गुणस्थान में ठहराव संभव नहीं — वहाँ से अधःपतन अवश्य होता है।
अष्टम गुणस्थान से दो मार्ग-श्रेणियाँ निकलती हैं — उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी। उपशम श्रेणी वाला आठवें से नौवें, फिर दसवें और ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँच सकता है, लेकिन उसके बाद उसका अधःपतन होता है। जबकि क्षपक श्रेणी वाला आठवें, नौवें, दसवें से सीधे बारहवें गुणस्थान तक पहुँचता है — वह ग्यारहवें का स्पर्श भी नहीं करता। बारहवें गुणस्थान में पहुँचने के बाद अधःपतन की कोई संभावना नहीं होती — यह एक अमर अवस्था है। तीसरा, बारहवाँ और तेरहवाँ गुणस्थान 'अमर गुणस्थान' माने जाते हैं — जब तक जीव इन गुणस्थानों में होता है, उसकी मृत्यु नहीं हो सकती। बारहवां गुणस्थान अल्पकालिक होता है, जबकि तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान हो जाने के कारण कुछ दीर्घकाल तक अवस्थान संभव है। चौदहवाँ गुणस्थान अत्यंत अल्पकालिक होता है। राग-द्वेष को कर्मों का बीज कहा गया है। इनसे जीव को पाप कर्मों का बंध होता है। राग-द्वेष के कारण आदमी ही आदमी पापाचार की प्रवृत्तियों में चला जाता है। राग-द्वेष के कारण ही सभी प्रकार के कर्मों के बंध जीव को होते हैं। राग-द्वेष से मुक्ति पाने के लिए आदमी को समता की साधना करने का प्रयास होना चाहिए।
आदमी के मन में कभी राग आता है तो कभी द्वेष का भाव जागृत होता है।
राग-द्वेष की भावनाओं से मुक्ति हो जाए तो आदमी वीतरागता के पथ पर अग्रसर हो सकता है। जब राग समाप्त हो गया तो द्वेष स्वतः समाप्त हो जाता है। राग-द्वेष से मुक्ति का प्रयास भी एक बड़ी साधना हो सकती है। प्रेक्षा ध्यान में प्रियता और अप्रियता के भावों से मुक्त रहने की साधना होती है। राग, द्वेष और स्नेह — ये भयंकर पाश हैं। इन पाशों से जो मुक्त होता है, वही आत्म-सुख में स्थिर रह सकता है। साधना का एक मूल तत्व है — राग-द्वेष का परित्याग। समता के भावों में वर्धमान रहना चाहिए। राग-द्वेष के भावों को प्रतनु करने का प्रयास करें, क्योंकि वर्तमान में पूर्ण वीतराग तो नहीं बन सकते, परंतु अनुकूलता-प्रतिकूलता की स्थितियों में समता और शांति बनाए रखें। भगवान महावीर की भांति समता की साधना में रहें। तीर्थंकर अध्यात्म जगत के परम पुरुष होते हैं — वे स्वयं ज्ञाता-द्रष्टा होते हैं। अर्हत पूर्णतया वीतराग होते हैं।आचार्य, महावीर वाणी का आश्रय लेते हैं, जबकि तीर्थंकर स्वयं वाणी-स्रोत होते हैं। आचार्य तीर्थंकरों के प्रतिनिधि होते हैं। जिसने राग-द्वेष को जीत लिया, वह केवलज्ञानी बन गया। जिसने मोह को जीता, वह वीतरागी बन गया। हम तेरापंथ धर्मसंघ, आचार्य भिक्षु से संबंधित हैं। भगवान महावीर और आचार्य भिक्षु में सहज और अद्भुत समानताएँ हैं। आचार्य भिक्षु को महावीर का अवतार कहा जा सकता है। वे समता और शांति के प्रतीक रहे। हमारे धर्म संघ में अब तक दस आचार्य हो चुके हैं। आचार्य धर्मसंघ के नियंता होते हैं। हमारे संघ में एक ही आचार्य की परंपरा है जो निरंतर प्रवर्धमान है। सबके आचार-विचार, सिद्धांत और संघीय मान्यताएं एक समान हैं। शिष्य भी एक ही आचार्य के होते हैं। यह संघ साधना का माध्यम बन जाता है। आगम वाङ्मय अत्यंत गरिमापूर्ण है — उसमें गहन तत्त्वज्ञान और सिद्धांत निहित हैं। हमें निरंतर आगम का स्वाध्याय करते रहना चाहिए। समय का सदुपयोग करें — स्वाध्याय भी आत्मा की एक खुराक है। राग-द्वेष के जाल को काटकर आत्म-साधना में आगे बढ़ने का प्रयास करें। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त साध्वीवर्याजी ने अपने वक्तव्य में कहा कि दुनिया में शक्ति और वीर्य का अत्यधिक महत्व है। चाहे ज्ञान हो, साधना हो या लोच — प्रत्येक के लिए शक्ति आवश्यक है। अन्तराय कर्म का क्षयोपशम आवश्यक है। प्राण शक्ति हमारे जीवन का आधार है। सहनशक्ति के बिना हम शारीरिक अस्वस्थता को भी नहीं झेल सकते। हमें शक्ति-संपन्न बनना है ताकि आत्मकल्याण कर सकें। समणी रोहिणीप्रज्ञा जी ने अपनी हृदयोद्गार व्यक्त किए। उपासिका लीला सालेचा ने अपनी भावनाएं प्रकट की और लक्ष्मण गोगड़ ने गीत का संगान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।