क्रांति के पुरोधा आचार्य भिक्षु

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साध्वी सरलयशा

क्रांति के पुरोधा आचार्य भिक्षु

जीवन की पारी के हर पायदान को जिंदादिली और शान-शौकत से जीने वाले महामना आचार्य भिक्षु को प्रणाम। उनके द्वारा जिया गया हर लम्हा सार्थक और सुकून देने वाला साबित हुआ। ‘ड्रेगन ब्लड ट्री’ पौधे की नाई आचार्य भिक्षु अपने फौलादी साहस और प्राणवान दिव्य साधुता के लिए दुनिया भर में विख्यात हुए। उनके स्मरण मात्र से जिज्ञासु हृदय झनझना उठता है। आस्था के आलम में परेशानियों का हिमगिरि पिघलता नजर आता है। तो जानें, उनके पारदर्शी व्यक्तित्व से जुड़े कुछेक तथ्यों का विमर्श—
धार्मिक संगठन के प्रणेता
संत भीखण एक धार्मिक संगठन के आचार्य थे। इसके बावजूद वे एक समाज सुधारक के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने सटीक शब्दों में समाज में पलने वाली कुरूढ़ियों पर प्रहार किया। तेरापंथ धर्म संघ के आद्यप्रणेता कहलाए, पर जैन धर्म में अठारहवीं सदी के सर्वोच्च आध्यात्मिक क्रांतिकारी संत के रूप में प्रतिष्ठित हुए। धर्मगुरु होने के नाते वे भगवान महावीर के कालातीत सिद्धांतों पर चलने के लिए कटिबद्ध थे। कष्टों की परवाह किए बिना वे सत्यमार्ग पर डटे रहे। अनुकूलता के चक्रव्यूह को तोड़कर सत्पथ पर चलने का दृढ़ निश्चय किया। स्वात्म-वचनबद्धता और जीवनी पर अटूट आस्था को प्राणवान रखने के लिए अपने गुरु का स्नेहिल साया छोड़, बुलंद हौसले के साथ चल पड़े अनचिन्ही राहों पर। कवि की पंक्तियां फिर से मुखर हो उठीं—
'मंजिल उन्हीं को मिलती है, जिनके सपनों में जान होती है।
परों से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है।।'
क्रांति का मकसद
हाल ही में घटित ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की भांति संत भीखण की धार्मिक क्रांति शिथिलाचार के विरुद्ध उठाया गया एक सटीक और साहसिक कदम था। पहलगांव में हुए आतंकी हमले की नाई संत भीखण को एकाएक रात्रि में तपने वाले प्रचंड ताप (ज्वर) से उनके भीतर सत्य क्रांति की तरंग उठी, जो लहर का रूप धरती हुई मचल उठीं दरिया बनने के लिए। वे संकल्पित हुए। जिनशासन की विराटता को उजागर करने वाला उनका यह फौलादी निर्णय अमूल्य था—और समय की मांग भी कुछ ऐसी ही रही, जिसने उनके भीतर अपराजेय पौरुष भर दिया।
तेरापंथ का उद्भव 
कालक्रम में भीखणजी ने अपने संगठन का नाम 'तेरापंथ धर्म संघ' रखा। जिसकी आधारशिला बने मौलिक तेरह नियम और कवि के बोल। सुनते ही उन्होंने वंदन मुद्रा में प्रणत होकर कहा—'हे प्रभो! यह तेरापंथ' — 'यह प्रभु का पंथ है। हम तो इस पर चलने वाले पथिक हैं।' समर्पण भाव से की गई तेरापंथ की प्रतिष्ठा उनकी निस्पृह चेतना की आवाज थी, जिसमें न पंथ का व्यामोह, न गुरु का मोह, न चेले का आकर्षण, न किसी जन-अपवाद की परवाह। बस एक ही धुन, एक ही लगन थी—
'मर पूरा देस्यां, आत्मा का कारज सारस्यां।'
आशय स्वरूप, आत्मविशुद्धि के ग्राफ को ऊंचाइयों पर ले जाना ही उनका प्रण था। जिसके बाबत कवि की ये पंक्तियां साकार हो उठीं—
''तूफान उसे क्या रोकेंगे, जिसने चलने से प्यार किया।
पतझड़ के ढीले हाथों से, सावन अपमानित क्या होगा?
बूंदों के आंख दिखाने से, बादल अपमानित क्या होगा?
सागर की तरह जो गहरा है, आकाश पर जिसका पहरा है।
गर्मी की तपन, सर्दी की सितम, सहकर जिसने उपहार दिया।।''
फौलादी संकल्प और जज्बे से आगे बढ़े। कभी हार नहीं मानी। कई मौके ऐसे भी आए जब लोगों का सकारात्मक साथ नहीं मिला, पर निराश न होने वाले उनके बुलंद हौसले ने लक्ष्य को कभी ओझल न होने दिया। इसी गुरुमंत्र से तेरापंथ का मार्ग प्रशस्त हुआ। ढाई सौ से भी अधिक बीते काल की अवधि में संघ की गुणवत्ता एवं गरिमा कभी धूमिल नहीं हुई। तप: साधना से भावित उनका संघ आज भी विकास के मार्ग पर गतिशील है।
दिल को छूने वाले बोल
‘तोलमोल के बोल, मन के दरवाजे खोल’—इस उक्ति को उजागर करने वाले उनके हर बोल मन्तव्य और सिद्धांत, अध्यात्म और तर्क की कसौटी पर उद्गिरित हुए। उसका आशय न केवल श्रद्धालुओं के गले उतरता, अपितु विरोधियों को भी आंदोलित करता। विरोधों के बीच सामंजस्य स्थापित करने वाले उनके उपदेश हर एक दिल को छूने का माद्दा रखते थे। वे समयज्ञ थे। अवसर के लिहाज से उनके सटीक बोल जनमानस में प्रतिष्ठित होते गए। सिद्धांतों की बारीकियों को भी सुगम शैली में समझाने की अनूठी कला से दिन-प्रतिदिन विरोधियों की संख्या घटती गई और श्रद्धाप्रणत होकर अनुयायी की श्रेणी में तब्दील होती गई। उनकी वाक्-संपदा बेजोड़ थी। उनकी वाणी से कबीर के बोल कृतार्थ हो उठे—
''ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरों को शीतल करे, आप ही शीतल होय।।''
भिक्षु चेतना वर्ष
ऋषि परंपरा के संपोषक, अध्यात्म जगत के सुमेरू युगप्रधान, महातपस्वी आचार्य श्री महाश्रमणजी भैक्षवगण के एकादमाधिशास्ता हैं। उन्होंने आचार्य भिक्षु को वैज्ञानिक युग में अपूर्व भविष्यदृष्टा के रूप में आलोकित किया है। श्रद्धाप्रणति करते हुए आचार्य महाश्रमणजी ने तेरापंथ संघ के आद्यप्रणेता आचार्य भिक्षु का तीन सौवां जन्म शताब्दी वर्ष ‘भिक्षु चेतना वर्ष’ के रूप में मनाने की उद्घोषणा की है। जिसका आगाज़ 8 जुलाई 2025 से होकर पूरे वर्षभर त्याग, तप और गहन मंथन के साथ किया जाएगा। इस वर्ष का सारा फोकस आचार्य भिक्षु के सूक्ष्म सिद्धांतों को गहराई से समझने और जीने का अवसर देगा। सिद्धांतों को समझने में पूज्यवरों की कृतियां और उपदेश महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। जो सिद्धांतों की गहराई को समझने में सक्षम नहीं हैं, उनके लिए उनका नाम सुमिरन—‘ॐ भिक्षु’ का जप नई ऊर्जा और वांछित दिशादर्शन होगा। आचार्य भिक्षु के नाम में ही शक्ति है, जो हमें ऊर्जा संपन्न बनाती है, मनोरथ पूर्ण करती है। श्रद्धा से भीगा जिज्ञासु अपने सारे वांछित कार्यों को सुगमता से संपादित करने की अर्हता हासिल कर लेता है।
फिर से जानें, आचार्य भिक्षु ने जैन शासन की असीम शक्ति को उजागर किया। जिज्ञासु को नई राह प्रदान की। धर्म–अधर्म की रेखाओं के बीच अभेद की दीवारों को ढहाया और दिया तेरापंथ धर्म संघ के रूप में आत्मोन्नयन का राजमार्ग। पूज्यपाद की 300वीं जन्मशताब्दी पर श्रद्धासिक्त अनगिन प्रणिपात, दो पंक्तियों के साथ— 'प्रणाम उस महामना को जिनका प्रभाव हमारे प्राणों में है। प्रणाम उस महाज्योति को जिनकी रश्मियां हमारे दिलों में हैं।।'