
गुरुवाणी/ केन्द्र
जीवन में प्रखर बने योग साधना : आचार्य श्री महाश्रमण
युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी कांकरिया मणिनगर क्षेत्र से विहार कर अमराईवाड़ी पधारे। मार्ग में कांकरिया तेरापंथ भवन में विराजित वयोवृद्ध 'शासनश्री' साध्वी रामकुमारी जी एवं स्थान स्थान पर श्रावक समाज को दर्शन देते हुए युगपुरुष सिंघवी भवन प्रांगण में पधारे। युगदृष्टा ने पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि भोग, रोग और योग—ये तीन ऐसे शब्द हैं, जिनके पीछे पीछे ‘ओग’ लगा है। दुनिया में भोग भी चलता है। पांच इंद्रियां हैं, जो पदार्थों का भोग करती हैं। दो शब्द हैं—काम, भोग। श्रोत्रेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय को कामी बताया गया है। शेष तीन इंद्रियां भोगी होती हैं। हमारी ये पांच इंद्रियां ज्ञानेन्द्रियां हैं। पांच कर्मेन्द्रियां—हाथ, पांव आदि—भी होती हैं। ज्ञानेन्द्रियों से हमें ज्ञान प्राप्त होता है। कान से सुनते हैं और सुनकर ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। आंख से देखकर भी ज्ञान प्राप्त हो जाता है। नाक से सूंघकर गंध का ज्ञान होता है। जीभ से स्वाद लेने से रस का ज्ञान होता है। स्पर्शनेन्द्रिय से छूकर ठंडे-गर्म का ज्ञान हो जाता है। ये इंद्रियां ज्ञान की इंद्रियां हैं, तो भोग का भी माध्यम बन सकती हैं।
भोग और रोग से ऊपर की चीज है योग। योग से हम संयम की साधना करें। सम्यक ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करें। भोगों पर आदमी संयम रखे। कई व्यक्ति भूख से मरते हैं, तो कई खाकर खराब हो जाते हैं। 'खायो घाटी, हुयो माटी।' भोग है, तो रोग भी शरीर में पैदा हो सकता है। हमें संयम, तप आदि योग-साधना और आध्यात्मिक साधना पर ध्यान देना चाहिए। चौरासी लाख जीव योनियों में संज्ञी मनुष्य जन्म कितना महत्वपूर्ण है। इस जीवन का धर्म के संदर्भ में लाभ उठाएं। जो धर्म की साधना इस मानव देह में की जा सकती है, उतनी अन्य योनियों में नहीं मानी गई है।
यदि धर्म प्राप्त हो जाए और कोई उसे छोड़कर भोग में लग जाए, तो वह आदमी अपने घर में लगे कल्पवृक्ष को उखाड़कर धतूरे के बीज का वपन करता है, चिंतामणि रत्न को फेंक कर कांच के टुकड़े इकट्ठे करता है, उत्तम हाथी को बेचकर गधा खरीदता है। ऐसे व्यक्ति नासमझ होते हैं। धर्म बहुत ऊंची चीज है। हमारी देव, गुरु और धर्म के प्रति गहरी आस्था होनी चाहिए। संकट आ जाए, संकट कटे या न कटे, पर धर्म को नहीं छोड़ना चाहिए। अहिंसा, संयम और तप रूपी धर्म का फल अच्छा होता है। संप्रदाय का अपना मूल्य है। यदि संप्रदाय को शरीर मान लें, तो धर्म उसकी आत्मा है। उसे अंतिम समय तक नहीं छोड़ना चाहिए। संन्यास धर्म प्राप्त हो जाए, और उसे जीवन भर पाल लिया जाए, तो वह बड़ी सफलता की बात है। गृहवास में रहते हुए भी धर्म का जीवन जिएं।गृहस्थ वेश में रहने वाला व्यक्ति केवलज्ञानी की स्थिति को भी प्राप्त कर सकता है। गृहस्थ वेश में भी साधुपन आ सकता है। अणुव्रत के अच्छे नियमों से गृहस्थ जीवन अच्छा हो सकता है।
हमारे जीवन में योग-साधना प्रखर बने। खान-पान में संयम रखें। जैन हो या अजैन, सभी 'गुडमैन' बनें। साध्वीप्रमुखाश्रीजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि मनुष्य जन्म जिसे प्राप्त हो गया, उसने बहुत बड़े सौंदर्य को प्राप्त कर लिया। धर्म मनुष्य ही कर सकता है। मनुष्य में विवेक-चेतना जागरूक होती है। मनुष्य अपनी शक्तियों का प्रयोग करे। सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर जीवन को सुफल और सफल बनाएं। पूज्यवर के स्वागत में स्थानीय सभाध्यक्ष नवरत्नमल चिप्पड़, सज्जनलाल सिंघवी, मेवाड़ तेरापंथ मण्डल के अध्यक्ष गणेश पगारिया ने ने अपने उद्गार व्यक्त किए। तेरापंथ युवक परिषद के सदस्यों ने गीत का संगान करते हुए संकल्पों का उपहार प्रस्तुत किया तो आचार्यश्री ने समुपस्थित युवकों को संकल्पों का त्याग कराया। सिद्धेश्वरी माता धाम-महीरंगपुर के अर्जुनभाई जीवाजी ने अपनी अभिव्यक्ति दी। स्थानीय ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने भावपूर्ण प्रस्तुति दी। तेरापंथ महिला मण्डल व तेरापंथ कन्या मण्डल ने स्वागत गीत का संगान करने के उपरान्त आचार्य प्रवर को त्याग की बगिया भेंट की। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।