
गुरुवाणी/ केन्द्र
वचन के प्रहारों को सहने वाला बन सकता है पूज्य : आचार्यश्री महाश्रमण
महावीर वाणी के प्रवक्ता युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि जैन वांग्मय में क्षमा धर्म बताया गया है। दस यति धर्मों में उत्तम क्षमा धर्म है। इसकी आराधना करना आत्म-कल्याण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। शास्त्र में कहा गया है कि वचन के प्रहारों को सहन करो। कठोर शब्द दौर्मनस्य पैदा करने वाले होते हैं। उन्हें सहन करना अच्छी बात है। सहन करना धर्म है, आत्मा के लिए हितावह होता है। सहन करने वाला साधु तो पूज्य होता है। यदि आदमी का चिंतन प्रशस्त हो जाए, तो कठोर वचनों को भी सहन किया जा सकता है। सहन करने से निर्जरा हो सकती है, कर्म झड़ सकते हैं। साधना की भूमिका हो या व्यवहार की, वचनों को सह लेना अच्छी बात हो सकती है। शांत भाव से सहन करें। शक्ति होते हुए भी मौन रखना और अच्छी बात है। सबके साथ रहते हुए भी सहन करने की शक्ति हो। इसलिए क्षमाधर्म की साधना करनी चाहिए। क्षमा वीर का भूषण है।
क्षमा रूपी खड्ग जिसके हाथ में है, दुर्जन उसका क्या बिगाड़ सकेगा। घास-फूस है तो वहां चिंगारी पड़ने से आग लग सकती है। सूखा मैदान है, वहां चिंगारी पड़ेगी तो भी आग नहीं लगेगी, चिंगारी बुझ जाएगी। सहन करने वाला आराधक हो सकता है। सहन करना तो सुख-शय्या है। क्षांति है, तो उस संदर्भ में शांति मिल सकती है। वचन के प्रहार तो बड़े-बड़े लोगों को भी सुनने पड़ सकते हैं। तथ्यहीन बातों में भी शांति रखें। स्पष्टीकरण हो सकता है। आलोचना-निंदा का जवाब कार्यों से दें। यदि आलोचक की गलतफहमियां दूर हो जाएं, तो वे आपके प्रशंसक भी बन सकते हैं।
कहा गया है– सबको मैं क्षमा करता हूं, सब मुझे क्षमा करें। सब प्राणियों के साथ मैत्री है, किसी के साथ वैर-भाव नहीं है। चित्त समाधि तो हमारे अपने हाथ में है। गुस्सा नहीं करेंगे, तो कर्म कट जाएंगे। जो वचन के प्रहारों को सहता है, वह पूज्य बनता है।
आचार्यश्री के मंगल प्रवचन से पूर्व साध्वीवर्या श्री संबुद्धयशाजी ने अपने वक्तव्य में कहा कि दो शब्द बड़े प्रसिद्ध हैं - समृद्धि और दरिद्रता। हर व्यक्ति समृद्ध बनना चाहता है। दरिद्रता किसी को भी प्रिय नहीं होती। समृद्धि दो प्रकार की होती है - धन-पदार्थ से समृद्ध और अध्यात्म से समृद्ध। पदार्थ जगत का सुख बाह्य सुख है। अध्यात्म से जो समृद्ध है, वह भीतरी सुख है। दोनों सुखों में अंतर होता है। पदार्थ का सुख क्षणिक होता है, जबकि अध्यात्म की समृद्धि का सुख स्थायी होता है, परम आनंद में ले जाने वाला होता है। हमें दोनों परिस्थितियों में समता में रहने का प्रयास करना है। पूज्यवर के स्वागत में ज्ञानशाला की प्रशिक्षिकाओं तथा तेरापंथ प्रोफेशनल फोरम-अहमदाबाद से जुड़ी महिला सदस्यों ने पृथक्-पृथक् गीत का संगान किया। स्थानीय तेरापंथी सभा के उपाध्यक्ष ललित सालेचा, उपासक प्राध्यापक डालमचन्द नौलखा, सूरजकरण बोथरा, सुनीता बांठिया, विजयराज संकलेचा ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। विजय कुमारी लुणिया ने पूज्यवर से अठाई का प्रत्याख्यान स्वीकार किया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।