पदार्थों का उपयोग करते हुए भी उनके प्रति ना हो आसक्ति : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

शाहीबाग, अहमदाबाद। 01 जुलाई, 2025

पदार्थों का उपयोग करते हुए भी उनके प्रति ना हो आसक्ति : आचार्यश्री महाश्रमण

जन-जन के उद्धारक आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारे जीवन में दो तत्व हैं - आत्मा और शरीर, यानी जीव और अजीव। इन दोनों का मिश्रित रूप ही हमारा जीवन है। यह शारीरिक जीवन वही होता है, जहां आत्मा और शरीर मिले होते हैं। कोरी आत्मा है, वहां जीवन नहीं। जैसे सिद्ध आत्माएं शुद्ध आत्माएं हैं, वे अशरीरी हैं। मृत शरीर है, वहां भी जीवन नहीं, क्योंकि वहां आत्मा नहीं है। प्रश्न है - मृत्यु क्या है? मृत्यु का अर्थ है शरीर और आत्मा का अलग-अलग हो जाना। शरीर और आत्मा का हमेशा के लिए वियुक्त हो जाना मोक्ष कहलाता है। हम जीवन जी रहे हैं, तो शरीर भी है। शरीर है, तो कितनी चीजें हमें चाहिए। पदार्थों का सहयोग चाहिए, वरना जीवन मुश्किल है। साधु को भी पदार्थों का सहयोग लेना पड़ता है, परंतु मोह, राग नहीं करना, मूर्च्छा में नहीं जाना - यही साधना है। शरीर और आत्मा सत्य हैं, पर दोनों एक नहीं हैं। शरीर अलग है, आत्मा अलग है - यह भेद विज्ञान है।
''आत्मा भिन्न, शरीर भिन्न है, एक नहीं संजोना।
है मिट्टी से मिला-जुला, पर आखिर सोना सोना।।''
पदार्थों का उपयोग करते हुए भी उनके प्रति आसक्ति न हो। एक सिद्धांत रहा है - तद् जीव तद् शरीरवाद। जो शरीर है, वह जीव है - यह नास्तिकवाद का विचार है। आस्तिकवाद का सिद्धांत है कि शरीर अलग है, आत्मा अलग है। सामने वाले की बात जब अच्छी तरह समझ ली जाए और वह ठीक लगे, तो उसका खंडन नहीं करना चाहिए। जब अपनी बात को सही मानने की स्थिति नहीं हो और सामने वाले की बात काटने का कोई सक्षम तर्क-आधार भी न हो, तो मौन रहना चाहिए। राजा प्रदेशी ने कुमार श्रमण केशी से चर्चा की, फिर कुमार श्रमण की बात सही लगी, तो उसे स्वीकार भी कर लिया। किसी के साथ तात्त्विक चर्चा हो, तो यह अच्छी बात है। अनेक सम्प्रदाय हैं। एक-दूसरे से मिलना हो, बातचीत हो और यदि कोई बात सही लगे, तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। मान्यता अलग हो सकती है, पर किसी की बात को समझने के बाद उसका खंडन न करें।
ज्ञान बढ़ाने की हमारी नीति होनी चाहिए। दुराग्रह न हो, आग्रहहीन, गहन चिंतन का द्वार हमेशा खुला रहना चाहिए। आत्मा अलग है, पुनर्जन्म है - यह सिद्धांत मानकर चलना चाहिए। आगे कहीं जाना है, तो धर्म के अच्छे मार्ग पर चलें। अच्छा, साधना-युक्त जीवन जीएं। यदि पुनर्जन्म है, तो आगे का जीवन भी अच्छा हो सकता है। जीवन में साधना, अहिंसा, नैतिकता होनी चाहिए। चातुर्मास का समय निकट आ रहा है। ज्यादा से ज्यादा तपस्याएं हों। मुनि पारसकुमारजी भी अच्छी तपस्याएं कर रहे हैं। शरीर का हम धर्म की साधना में उपयोग करें। यह मोक्ष-साधना का हेतु है। शरीर, वाणी, मन - ये साधन हैं। हम इनका अच्छा उपयोग करें। स्थिरता और गतिमत्ता - दोनों का अपना-अपना उपयोग हो सकता है। हम आत्मकल्याण की साधना में आगे बढ़ते रहें। हमारे गुरुओं ने कितना कार्य किया है। प्रेक्षा विश्व भारती में दूसरा चातुर्मास होना निर्धारित है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने वहां प्रथम चातुर्मास किया था। हम चातुर्मास का अच्छा लाभ उठाएं। साध्वीश्री अर्हतप्रभा जी ने भी पूज्यवर की अभिवंदना में अपनी भावना रखी। पूज्यवर के स्वागत में डॉ. धवल डोसी, राकेश सिपाणी, अशोक सेठिया, अहमदाबाद की मेयर प्रतिभा जैन ने अपनी भावनाएं अभिव्यक्त कीं। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।