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महाप्रज्ञ की निर्मल प्रज्ञा से संघ, देश और विश्व हुए लाभान्वित
चंडीगढ़। आचार्य महाप्रज्ञजी केवल एक जीवित किंवदंती नहीं, बल्कि एक उद्देश्य हैं। वे न केवल एक विश्वास हैं, बल्कि विश्वास की परिभाषा स्वयं हैं। उनका अस्तित्व किसी समय या क्षेत्र की सीमा में नहीं बंध सकता। उन्हें लोकप्रिय रूप से 'मोबाइल विश्वकोश' कहा गया, वे ज्ञान का अनंत खजाना थे। प्रख्यात कवि रामधारी सिंह दिनकर ने उन्हें ‘भारत का दूसरा विवेकानंद’ कहकर संबोधित किया। वे केवल ज्ञान के भंडार नहीं थे, बल्कि स्वयं एक महान स्रोत थे। जैसे किसी जल स्रोत के समीप जल सदैव ताजा और निर्मल होता है, उसी प्रकार आचार्य महाप्रज्ञजी का चिंतन हर क्षण नवीन प्रेरणा देता था। ऐसे स्रोत में अकेले असंख्य व्यक्तियों की प्यास बुझाने की क्षमता होती है। आश्चर्यजनक रूप से, उन्होंने केवल ज्ञान से प्यास शांत नहीं की, बल्कि लोगों में ज्ञान की प्यास भी जगाई। उनके चिंतन की गहराई से उत्पन्न विचार मंथन प्रभावी और स्थायी होता था।
ये विचार मुनि विनय कुमार जी 'आलोक' ने अणुव्रत भवन तुलसी सभागार में, आचार्य महाप्रज्ञजी के जन्मदिवस पर उपस्थित श्रावक-श्राविकाओं को संबोधित करते हुए व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि आचार्य महाप्रज्ञ की निर्मल प्रज्ञा से संघ, देश और विश्व लाभान्वित हुए। इसी कारण, विक्रम संवत 2035 (12 नवंबर 1978) को गंगाशहर में उन्हें ‘महाप्रज्ञ’ की उपाधि से अलंकृत किया गया। आचार्य महाप्रज्ञ मानवतावादी नेता, आध्यात्मिक गुरु और शांति के राजदूत थे। वे जैन धर्म के श्वेतांबर तेरापंथ संप्रदाय के दशमाचार्य थे। वे एक आदरणीय संत, योगी, दार्शनिक, लेखक, संचालक और कवि के रूप में प्रतिष्ठित रहे।