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आचार निष्ठा की महाज्योत : आचार्यश्री भिक्षु
आचार्यश्री भिक्षु एक सिंह पुरुष थे। उन्होंने सिंह के सपने के साथ मां दीपा और पिता बल्लुशाह के प्रांगण में जन्म लिया। ठाणं सूत्र में एक चतुष्पदी का उल्लेख आता है। आगमिक आस्था के आस्थान आचार्य भिक्षु ने सिंह की तरह पराक्रम करते हुए संन्यास ग्रहण किया और आजन्म शेर की तरह दहाड़ते रहे। उन्होंने एक धर्म क्रांति की। दुनिया में क्रांति करने वाले अनेक व्यक्ति होते हैं, पर शांति, धृति और शक्ति के साथ भक्ति पथ की क्रांति करने वाले विरले व्यक्ति होते हैं। उनमें आचार्यश्री भिक्षु का नाम प्रथम पंक्ति में है। उनकी सत्याग्रही चेतना का मंतव्य था – साध्वोचित शिथिलता को पीछे धकेल, नई ज्योति का स्वागत करना। प्राणवान धर्म को लोक जीवन में अवतरित करने के लिए उन्होंने ज्ञान की गंगा, साधना की सरस्वती और कल्याणकारी कालिंदी प्रवाहित की। उनकी ज्ञान रश्मि, ध्यान रश्मि और योग रश्मि ने जन-जन की चेतना को आकृष्ट किया।
कलात्मक प्रशिक्षण
आचार्य भिक्षु की पारगामी मेधा जितनी सूक्ष्मग्राही थी, उतनी ही उनमें तत्वबोध देने की कलात्मकता थी। सहज सरल शैली से वे इस प्रकार बात-बात में बोध देते कि सामने वाला श्रोता आकृष्ट हुए बिना नहीं रहता। एक बार केलवा के ठाकुर मौखमसिंह ने कहा कि स्वामी जी, आप आगमों पर प्रवचन करते हो। उन्हें किसी ने देखा नहीं, तब वे सत्य हैं या असत्य, इसका प्रमाण क्या है? भिक्षु स्वामी ने विलक्षण प्रतिभा से प्रत्युत्तर में कहा – तुमने अपने पूर्वजों के नाम, परिचय, संस्मरण सुने हैं, उन्हें मानते भी हो, जबकि तुमने उनको देखा नहीं, तब विश्वास कैसे करोगे?
ठाकुर बोले – हमारे वंशजों के नाम भाटों की पुस्तकों में लिखे हुए हैं, इस आधार पर उन्हें स्वीकृत करते हैं। तब स्वामी जी ने कहा – भाटों के असत्य बोलने या लिखने का त्याग नहीं है, फिर भी तुम उनकी बात को सत्य मानते हो, तब ज्ञानियों द्वारा प्ररूपित शास्त्रों को सत्य मानने में क्या आपत्ति है? स्वामी जी की पैनी दृष्टि, कलात्मक वाकपटुता ठाकुर साहब को विस्मय-विमुग्ध बना गई। ऐसी एक नहीं, अनेक घटनाएं हैं, जिसमें भिक्षु स्वामी के वक्तृत्व कौशल के नज़ारे देखने को मिलते हैं।
आचारनिष्ठ व्यक्तित्व
आचार्य भिक्षु की आचार-विचार निष्ठा बेजोड़ थी। छोटी सी खामी भी उन्हें बर्दाश्त नहीं होती। अचेतन रहने वालों को वे बेधड़क कहने में निष्णात थे। रीयां के अमीर सेठ हरजीमल साधुओं को वस्त्र बहराते एवं उन्होंने स्वामी जी को भी आग्रह किया।
भीखणजी ने कहा – तुम कपड़ा मोल लाते हो साधुओं के लिए, अतः हमें नहीं कल्पता। तो आप हमारा व्यक्तिगत वस्त्र लें। उसे भी लेना मंजूर नहीं किया, क्योंकि कौन तार निकालेगा कि यह वस्त्र व्यक्तिगत था या साधु के निमित्त लाया हुआ।
इस प्रकार आचार्य भिक्षु की सोच का दायरा विशाल था, अदम्य आत्मविश्वास लाजवाब था। उनके चिंतन का कोण था –
'हर कार्य के लिए उल्लास चाहिए।
हर सांस के साथ मन का विश्वास चाहिए।'
हम उल्लास और विश्वास के साथ प्रकाश के पथ पर बढ़ें, प्रकाशमय बनें।
प्रकाश पुंज की अभिवंदना में –
'यों तो दुनिया के समंदर में, मोतियों की कमी नहीं।
पर आचार्य भिक्षु की आब जैसा कोई दूसरा मोती नहीं।।'