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शुद्धाचार विचार के पोषक थे आचार्य भिक्षु
जन्म और जीवन दो अलग-अलग बिंदु हैं। दोनों का अपना-अपना महत्व है। इन दोनों में उत्कृष्ट जीवन ही वास्तव में सार्थक कहलाता है। जन्म तो अनेक प्राणी लेते हैं, परंतु जीवन कैसा होना चाहिए, इसके ज्ञाता बहुत कम दिखाई देते हैं। जो व्यक्ति अपने जीवन को साधनामय और संयममय बना लेते हैं, वे जन-जन के लिए प्रातःस्मरणीय, वंदनीय, श्लाघनीय और आदरणीय बन जाते हैं। आचार्य भिक्षु एक ऐसे सिद्ध पुरुष थे, जिन्होंने राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र के कांठा प्रदेश स्थित कंटालिया ग्राम में माता दीपांजी और पिता बल्लूशाह के घर जन्म लेकर न केवल अपने परिवार को, बल्कि जन-जन को धन्य बना दिया। उनकी साधना का आधार महावीर वाणी थी। उन्होंने उस वाणी को अत्यंत गहराई से समझा और उसे अपने जीवन में उतार लिया।
उनकी साधना यात्रा आसान नहीं थी। उन्हें अनेक प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ा, परंतु उनका फौलादी संकल्प कभी डगमगाया नहीं। स्थानाभाव के कारण उन्हें श्मशान में निवास करना पड़ा, आहार और जल की कमी को उन्होंने सहज रूप से तपस्या का रूप दे दिया। लोग उन्हें अपशब्द कहते, मुक्कों से प्रहार करते, लेकिन वे सब कुछ समभाव से सहन करते रहे। ईर्ष्यालु लोग उन्हें साधना मार्ग से विचलित करने का प्रयास करते, परंतु उनके मन और मस्तिष्क पर वीतराग वाणी की गहरी छाप थी। उन्होंने हर परिस्थिति को समभाव से स्वीकार किया।
विक्रम संवत 1817 की आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को उन्होंने मेवाड़ प्रदेश के केलवा नगर में भाव संयम ग्रहण किया। उस समय वहाँ मात्र पाँच संत थे, सभी ने तेले की तपस्या करते हुए दीक्षा स्वीकार की। संघर्ष की यह यात्रा निरंतर चलती रही। प्रारंभ में साध्वियाँ नहीं होने के कारण लोग तेरापंथ को 'खांडे लड्डू' की उपमा देते थे। विक्रम संवत 1821 में सर्वप्रथम तीन साध्वियों का दीक्षा ग्रहण हुआ। विक्रम संवत 1832 तक साधु-साध्वियों की संख्या में अच्छी वृद्धि हो गई। तब आचार्य भिक्षु ने मर्यादावली का निर्माण किया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि सभी साधु-साध्वियों को मर्यादाओं का पालन करना चाहिए, ताकि उनका साधुत्व निखरता रहे। उन्होंने अपने उत्तराधिकारी का भी चयन कर लिया। 'एक गुरु, एक विधान' की परंपरा सबको प्रिय और ग्राह्य लगी। आचार्य भिक्षु ने गृहस्थ जीवन में केवल महाजनी विद्या पढ़ी थी, फिर भी उन्होंने जैन आगमों का गहन अध्ययन कर संघ की सुव्यवस्था हेतु जो मर्यादाएँ निर्मित कीं, वे आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। तेरापंथ धर्मसंघ की मूल आत्मा वही मर्यादाएँ हैं। हमें सात्त्विक गौरव की अनुभूति होती है कि सैकड़ों वर्षों के पश्चात भी उन मूल मर्यादाओं में किसी परिवर्तन की आवश्यकता नहीं अनुभव होती। आषाढ़ शुक्ला तेरस के दिन, परम पूज्य आचार्य श्री महाश्रमण जी की प्रेरणा और सूझबूझ से, जहां कहीं भी तेरापंथी परिवार निवास करता है, वहाँ आचार्य भिक्षु का जन्मदिवस त्याग, तपस्या, स्मरण और भजन के साथ श्रद्धापूर्वक मनाया जा रहा है। इसका उद्देश्य यह है कि केवल वर्तमान ही नहीं, अपितु भावी पीढ़ियाँ भी आचार्य भिक्षु के जीवन और सिद्धांतों से परिचित हो सकें। आचार्य भिक्षु के 300वें जन्मदिवस पर शत-शत वंदन एवं अभिनंदन।