
गुरुवाणी/ केन्द्र
संयोगों से विमुक्त होता है साधु : आचार्यश्री महाश्रमण
वीर भिक्षु समवसरण में तेरापंथ धर्मसंघ के राम, हृदयहार आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आयारो आगम के आधार पर अपनी अमृत देशना प्रदान करते हुए कहा – दुनिया में दो मार्ग हैं: एक संसार का मार्ग और दूसरा मोक्ष का मार्ग। संसार के मार्ग पर बढ़ने वाला जन्म-मरण की परंपरा को आगे बढ़ाता है, जबकि मोक्ष के मार्ग पर आगे बढ़ने वाला जन्म-मरण की परंपरा से विमुक्त हो जाता है। आयारो आगम में बताया गया है कि जो वीर पुरुष होते हैं, वे महायान पर बढ़ते हैं। महायान यानी महापथ, महामार्ग – मोक्ष का मार्ग महायान है। क्षपक श्रेणी मोक्ष का ही मार्ग है। क्षपक श्रेणी लेने वाला निश्चित रूप से उसी जीवन के बाद मोक्ष को प्राप्त करेगा, अतः क्षपक श्रेणी का मार्ग महायान है।
क्षपक श्रेणी से पहले साधुता लेनी होगी। साधु बनने के लिए आवश्यक है – संयोग का परित्याग करना। संसार में कई प्रकार के संबंध होते हैं – पिता-पुत्र, दादा-पोता, नाना-दोहित्र आदि। दीक्षा लेनी है तो संबंधों को छोड़ना होगा। उत्तरज्झयणाणि में कहा गया है कि साधु कैसा होता है – संयोग से विमुक्त, संबंधातीत चेतना वाला, सांसारिक संबंधों से ऊपर उठने वाला। एक गृहस्थ सांसारिक संबंधों से बंधा होता है, इसलिए उसे संबंधियों के किसी कार्यक्रम में जाना पड़ता है, संबंध निभाना होता है, परंतु एक साधु संबंधों को छोड़ चुका होता है – सांसारिक संबंधों से वह एक सीमा तक मुक्त होता है। साधु अणगार होता है, भिक्षु होता है। साधु की माधुकरी वृत्ति होती है – उसी से उसका भोजन का कार्य हो जाता है। साधु को गृहस्थ के परिवार में क्या हो रहा है आदि बातों में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए।
साधु धर्मोपदेश दे, तत्त्वज्ञान की बात बताए, त्याग और प्रत्याख्यान कराए, जीवन को धार्मिक ढंग से जीने की प्रेरणा दे – यह कार्य वह कर सकता है। आयारो में कहा गया है कि साधु लोक के संयोग का वमन करने वाला, सांसारिक संबंधों को त्यागने वाला होता है। धन, परिवार और शरीर का भी मोह छोड़ देना चाहिए – उसका वमन कर देना चाहिए। इन संबंधों को छोड़कर महायान पर चलें, आगे से आगे बढ़ें। साधु असंयमित जीवन की इच्छा न करें, दीर्घजीवी होने की भी कामना न करें। जितना भी जीवन मिले, उसे संयमपूर्वक, त्यागपूर्वक और समता के साथ जिएं। गृहस्थ भी, जितना संभव हो, अपना जीवन धर्म-साधना से युक्त बनाए। प्रश्न उठ सकता है – धर्म मुझे क्या देगा? धर्म आत्मा का कल्याण भी करता है और धर्म से जुड़े संदर्भ में भौतिक वस्तुएं भी प्राप्त हो सकती हैं। धर्म एक कल्पवृक्ष के समान है – जिससे भौतिक सुविधाएं भी प्राप्त होती हैं और आध्यात्मिक फल भी मिलता है। तात्त्विक दृष्टिकोण से देखें तो धर्म से संवर और निर्जरा होती है – यह आध्यात्मिक लाभ है। वहीं धर्म से पुण्य का बंध होता है – यह भौतिक लाभ है। मोक्ष पाने का मुख्य साधन संवर और निर्जरा हैं। मोक्ष प्राप्त करने के लिए अंततः पुण्य को भी छोड़ना होगा – पुण्य लेकर जीव मोक्ष में नहीं जा सकता।
धर्म से शांति प्राप्त की जा सकती है। यदि हम क्रोध न करें, घमंड न करें, तो स्वयं भी शांत रहेंगे और दूसरों को भी शांति मिल सकती है। धर्म का एक तत्त्व है – समता। अनुकूलता या प्रतिकूलता आने पर यदि हमारे भीतर समता है तो हम दुखी नहीं होंगे। धर्म हमें आत्मिक सुख प्रदान करता है। धर्म से चित्त में समाधि आती है और संवर-निर्जरा के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति होती है। भौतिक अनुकूलताएं भी धर्म से प्राप्त हो सकती हैं। पूज्यप्रवर के मंगल प्रवचन के पूर्व साध्वीप्रमुखाश्रीजी ने जनता को उद्बोधित करते हुए कहा – यदि आत्मा को जानना और पहचानना है, तो एकाग्रता बढ़ानी होगी और पूरे मनोयोग से साधना करनी होगी। जो आत्मा को जान लेता है, वह सबको जान लेता है। प्रवचन उपरांत मुनि राजकुमारजी ने तपस्या विषयक एक भावपूर्ण गीत की प्रस्तुति दी, तथा मुनि मदनकुमारजी ने सभी श्रद्धालुओं को विविध तपस्याओं के लिए प्रेरित किया। इसके पश्चात सिरियारी संस्थान से जुड़े श्रद्धालुओं ने आचार्यश्री की सन्निधि में बैनर का अनावरण कर उनका मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।