
गुरुवाणी/ केन्द्र
जीवन में हो संवर को बढ़ाने का प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण
आयारो आगम पर अपनी मंगलमय अमृत देशना प्रदान करते हुए आचार्यश्री महाश्रमणजी ने फरमाया— कर्म का आदान मुख्य रूप से कषाय हैं। कर्मों के बंधन के लिए दो चीजें जिम्मेदार हैं—कषाय और योग। बंध के चार भेद हैं—प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश। प्रकृति और प्रदेश बंध का सम्बन्ध योग के साथ तथा स्थिति और अनुभाग बंध का सम्बन्ध कषाय के साथ है। पापकर्म के बंधन में मुख्य भूमिका मोहनीय कर्म की होती है और मोहनीय कर्म का मुख्य तत्त्व कषाय है। कषाय के चार स्तर हैं—अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन। अनंतानुबंधी कषाय की सघनता संज्वलन कषाय तक क्रमशः कम होती जाती है। मोहनीय कर्म की 28 प्रकृतियाँ होती हैं—25 चारित्र मोह की और 3 दर्शन मोह की। जहां कषाय नहीं होता, वहां बंधन नाममात्र का होता है—बंधा, भोगा, झड़ा। इस स्थिति में ग्यारहवें गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान तक ईर्यापथिक बंध होता है। केवल सातवेदनीय का बंध होता है।
सकषाय अवस्था अर्थात पहले से दसवें गुणस्थान तक का बंध साम्परायिक बंध होता है। चौदहवें गुणस्थान में कषाय और योग दोनों नहीं होते, अतः यह अबंध की स्थिति होती है। अयोगी अबंध होता है। संवर की उत्कृष्ट साधना चौदहवें गुणस्थान में होती है। इस गुणस्थान में पाँचों संवर एक साथ रहते हैं। गुणस्थानों की प्राप्ति में संवर का योगदान होता है। सम्यक्त्व संवर के साथ आंशिक व्रत संवर होने पर पाँचवाँ गुणस्थान, पूर्ण संवर होने पर छठा गुणस्थान, सम्यक्त्व, व्रत और अप्रमाद—इन तीन संवरों के होने पर सातवाँ गुणस्थान, अकषाय आने पर ग्यारहवाँ, बारहवाँ, तेरहवाँ गुणस्थान, और अयोग संवर आने पर चौदहवाँ गुणस्थान हो जाता है।
साधना में दो ही मुख्य चीजें हैं—संवर और निर्जरा। संवर ही मुख्य रूप से मोक्ष का कारण है। यद्यपि निर्जरा भी मोक्ष में सहायक है, लेकिन यदि कोई व्यक्ति केवल संवर की ही साधना करता है तो उसकी निर्जरा अवश्य होगी। संवर में इतनी शक्ति है कि इसकी साधना करने वाला आए हुए कर्मों का वेदन करने वाला बन जाता है। श्रावक सामायिक करते हैं, वह भी कर्मों को रोकने का ही कार्य है। तेरापंथ धर्मसंघ में 6 कोटि, 8 कोटि और 9 कोटि—तीनों ही प्रकार की मान्यता है। गृहस्थ के नौ कोटि त्याग सापेक्ष रूप से होते हैं, वे उतने विशुद्ध नहीं हो सकते, जितने साधु के नौ कोटि त्याग होते हैं। एक साधु के यावज्जीवन नौ कोटि त्याग होते हैं। एक गृहस्थ सामायिक ग्रहण करने से पूर्व जो सावद्य क्रिया करता है, उससे संबंध टूटता नहीं है। वह क्रिया सामायिक के दौरान भी चालू रहती है। इसलिए सम्पूर्ण नौ कोटि की सामायिक साधु की ही होती है। सामायिक में अनेक सावद्य प्रवृत्तियों से बचाव हो जाता है। सामायिक के दौरान जो शुभ योग होता है, उससे निर्जरा हो जाती है। व्यक्ति को अपने जीवन में जितना संवर हो सके, उसका प्रयास करना चाहिए। परिग्रह, द्रव्य सीमा, हरियाली, लीलोती सब्जियों का त्याग आदि से बहुत त्याग संभव है और यही त्याग, संकल्प ही धर्म है।
नौ तत्त्वों में मोक्ष के साधक तत्त्व दो ही हैं—संवर और निर्जरा। गृहस्थ को अपने जीवन में जितना संवर बढ़ सके, उतना बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए और साथ ही निर्जरा का भी प्रयास करते रहना चाहिए। इस प्रकार आयारो में कहा गया है कि कर्मों के आदान को निषिद्ध कर, अवरुद्ध कर, रोक कर साधक अपने कर्मों का भेदन करने वाला बन सकता है। इसके बाद परम पूज्यवर ने तेरापंथ प्रबोध के पद्यों का संगान कर उनकी व्याख्या की। अहमदाबाद चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति द्वारा वि.सं. 2082 का पावस प्रवास पुस्तिका तथा फड़द, आचार्यश्री के करकमलों द्वारा लोकार्पित किए गए। उपासक शिविर के संदर्भ में, उपस्थित उपासक-उपासिकाओं को आचार्यश्री ने उप-संपदा प्रदान करते हुए आत्मिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।