
गुरुवाणी/ केन्द्र
प्रमाद से बचकर अभय के नंदनवन में रमण करें : आचार्यश्री महाश्रमण
श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने वीर भिक्षु समवसरण में पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा — आयारो आगम में कहा गया है : 'सव्वतो पमत्तस्स भयं सव्वतो अप्पमत्तस्स णत्थि भयं।' इस सूत्र में हम प्रमाद और भय, तथा अप्रमाद और अभय का दर्शन कर सकते हैं। भय और प्रमाद, तथा अभय और अप्रमाद का आपस में संबंध है। शास्त्र में बताया गया है कि प्रमत्त को सब ओर से भय होता है, जबकि अप्रमत्त को किसी भी ओर से भय नहीं होता। प्रमत्त वह होता है जो कषाय से अभिभूत आत्म-परिणाम वाला होता है। कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ — या संक्षेप में, राग और द्वेष। जो राग से दबा हुआ है, जो द्वेष से आक्रांत है, उसे भय हो सकता है।
कषाय और राग-द्वेष के दो रूप होते हैं: एक सुषुप्त अवस्था का कषाय, दूसरा जागृत अवस्था का कषाय। साधु और गृहस्थ दोनों छद्मस्थ हैं। वर्तमान समय में साधु अधिकतम सातवें गुणस्थान तक विकास कर सकता है, परंतु वहाँ ज्यादा समय तक ठहर नहीं सकता — वापस नीचे आना पड़ता है। गृहस्थ सामान्यतः पाँचवें गुणस्थान से आगे नहीं जा सकते। वर्तमान में साधु और श्रावक दोनों के भीतर मोहनीय कर्म विद्यमान है। जब मोह कर्म का संयोग होता है, तो योग अशुभ होता है, और वियोग होता है तो योग शुभ होता है। इस समय साधु और श्रावक प्रवचन में बैठे हैं, तो स्थूलतः शुभ योग में हैं। प्रश्न उठता है: क्या पाँचवें, छठे, सातवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म नहीं है? उत्तर है — मोहनीय कर्म तो है, पर वह इस रूप में उत्तेजित नहीं है कि जिससे योग अशुभ बन जाए। वह सुषुप्त अवस्था में है। जब कोई गुस्से में होता है, झगड़ा कर रहा होता है, तो उस समय कषाय उत्तेजित अवस्था में होता है। इस प्रकार कषाय के दो रूप माने जाते हैं।
शास्त्र में कहा गया है कि प्रमत्त को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव — सब ओर से भय हो सकता है। उदाहरणतः, कोई व्यक्ति यदि राग में है, तो उसे अपने धन की सुरक्षा का, प्रिय वस्तु के वियोग का भय हो सकता है। द्वेष होने पर भी भय हो सकता है — जैसे किसी अप्रिय व्यक्ति से सामना न हो जाए। प्रमाद का एक और रूप है — गलती। जो गलती करता है, उसे भी भय हो सकता है; गलती करने पर दंड आदि का भय संभव है। भय छठे गुणस्थान तक हो सकता है; सातवें गुणस्थान में भय नहीं होता। मनुष्य जितना प्रमाद से बचे, अपने नियमों का अतिक्रमण न करे, और कषायों से परास्त न हो तो वह व्यक्ति अभय के नंदनवन में रमण कर सकता है। हम भी भय में न रहें और किसी भी प्राणी को भयभीत न करें। किसी पशु-पक्षी के खाने में, बैठने में या नींद में विघ्न न डालें — यह प्रयास होना चाहिए।