सम्यक्त्व को बनाएं शक्तिशाली और निर्मल : आचार्य श्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 18 जुलाई, 2025

सम्यक्त्व को बनाएं शक्तिशाली और निर्मल : आचार्य श्री महाश्रमण

तेरापंथ धर्मसंघ के एकाधिशम अधिशास्ता, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो आगम’ के माध्यम से पावन संबोध प्रदान करते हुए फरमाया कि – 'एक और बहुत का परस्पर संबंध है। एक का प्रभाव बहुतों पर पड़ सकता है और बहुतों का प्रभाव एक पर पड़ सकता है।' जो एक को झुकाता है, वह बहुतों को झुकाता है और जो बहुतों को झुकाता है, वह एक को झुकाता है।
व्यवहार में हम देखें तो जैसे कोई साधु किसी नगर में जाता है, प्रवचन करता है, लोगों को धर्म और अध्यात्म समझाने का प्रयास करता है। यदि वहाँ का राजा या मुखिया साधु का प्रवचन श्रवण कर धर्म को स्वीकार कर लेता है और वह साधु का बहुमान करता है, वंदन करता है, तब नगर की जनता जब राजा की साधु के प्रति भक्ति देखती है, तो वह भी राजा को देखकर प्रवचन में आने लगती है और साधु को वंदन, नमस्कार करने लगती है। इस प्रकार एक को झुका लिया तो बहुतों को झुका लिया।
जब बहुत लोग एक ही दिशा में जाते हुए दिखाई देते हैं, तो वहाँ का मुखिया सोचता है कि ये सब लोग कहाँ जा रहे हैं, और जब उसे पता चलता है कि वे किसी बड़े संत के प्रवचन को सुनने जा रहे हैं, तो मुखिया के मन में भी यह विचार आ सकता है कि इतनी जनता जा रही है तो मैं भी चलूं। इस प्रकार बहुतों को जो झुकाता है, वह एक को भी झुका सकता है। यह व्यावहारिक संदर्भ है।
इसी बात को यदि हम तात्त्विक संदर्भ में समझें, तो एक मोहनीय कर्म यदि है, तो अन्य सातों कर्मों को भी रहना ही पड़ेगा; वे मोहनीय कर्म को छोड़कर नहीं जा सकते। एक मोहनीय कर्म यदि क्षीण हो गया, तो ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय – ये तीनों कर्म भी चले जाएंगे और शेष चार अघाती कर्म भी समाप्त हो जाएंगे।मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियाँ बताई गई हैं – सोलह कषाय, नौ नो-कषाय और तीन दर्शन-मोह। इनमें यदि क्रोध को क्षीण या उपशम कर दिया जाए, तो मोहनीय कर्म की अन्य प्रकृतियाँ भी क्षीण हो सकती हैं। इस प्रकार एक को यदि नष्ट कर दिया जाए, तो बहुतों का भी नाश हो सकता है।
गुणस्थान के क्रम में चौथे गुणस्थान में क्षायिक, औपशमिक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व हो सकता है। सातवें गुणस्थान के बाद चारित्र मोहनीय की प्रकृति का जो क्रम बनता है, वह दो हैं – एक उपशम श्रेणी और दूसरा क्षपक श्रेणी। जो साधु उपशम श्रेणी के मार्ग से चलता है, वह कषायों को क्षीण नहीं करता, केवल दबाता है। वह ग्यारहवें गुणस्थान तक जा सकता है, आगे मार्ग नहीं है। उपशम श्रेणी का मार्ग दबाने का है, क्षीण करने का नहीं। जो दबाया गया है, वह बाद में उभरेगा ही। ऐसे साधु को ग्यारहवें गुणस्थान से लौटना पड़ेगा। जो साधु क्षपक श्रेणी का मार्ग अपनाता है, वह कषायों को क्षीण करता हुआ आठवें से नवें, दसवें और फिर सीधा बारहवें गुणस्थान में पहुँचता है और वहाँ मोहनीय कर्म का सम्पूर्ण क्षय हो जाता है। यह एक बड़ी सफलता है। इसके बाद तेरहवां गुणस्थान शीघ्र आता है और साधु को केवलज्ञान, केवलदर्शन तथा निरंतराय हो जाता है। चारों घाती कर्म नष्ट हो जाते हैं।
तेरहवें गुणस्थान में चार अघाती कर्म – वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुष्य – रहते हैं। चौदहवें गुणस्थान की समाप्ति के साथ ही ये शेष चारों अघाती कर्म भी समाप्त हो जाते हैं। आत्मा निष्कर्म बन जाती है और मोक्ष में विराजमान हो जाती है। इस प्रकार ‘आयारो’ में कहा गया है – 'जे एगं नामे से बहुं नामे, जे बहुं नामे से एगं नामे।' एक कषाय को यदि झुका दिया, नष्ट कर दिया, तो बहुत कषायों का भी नाश हो गया। और बहुतों का नाश हुआ तो एक मोहनीय कर्म का भी नाश हो गया। यह एक और बहुत का परस्पर प्रभाव है, निष्पत्ति है। प्रश्न यह है कि मोहनीय कर्म को साधु या गृहस्थ किस प्रकार कमजोर करें? वर्तमान समय में मोहनीय कर्म का पूर्ण क्षय परम्परागत मान्यता के अनुसार इस भरत क्षेत्र में संभव नहीं है, परन्तु उस दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। यदि जीव को एक बार क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त हो गया, तो वह अनंतकाल तक कभी भी नष्ट नहीं होगा – न संसारी अवस्था में और न ही मोक्ष में।
सम्यक्त्व को शक्तिशाली और मजबूत बनाने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं:
1. यह विश्वास रखना कि – 'वही सत्य है जो जिनों, केवलियों ने प्रवर्तित किया है, वह निःशंक है।' अर्थात् जो शुद्ध सत्य है, उसका हमें समर्थन करना चाहिए। जो भी शुद्ध साधु हैं, उन्हें मेरा नमस्कार है, चाहे वे किसी भी संप्रदाय या वेश में हों। 2. कषायों को मंद करना – क्रोध, मान, माया, लोभ को कमजोर करने का अभ्यास करना। 3. तत्त्वों को अनाग्रह भाव से समझने का प्रयास करना – अर्थात् समय के साथ चिन्तन में परिवर्तन और विकास संभव है, अतः अपने मत के प्रति दुराग्रह नहीं रखना चाहिए।
इन तीन बातों से हमारे सम्यक्त्व की निर्मलता बनी रह सकती है और पुष्ट हो सकती है। देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा, निर्ग्रन्थ भाव और वीतराग मार्ग पर दृढ़ निष्ठा बनी रहनी चाहिए। प्रलोभन और भय से कभी विचलित नहीं होना चाहिए। पूज्य प्रवर की मंगल सन्निधि में ठाणे (महाराष्ट्र) के पूर्व सांसद संजीव नाईक ने आचार्यश्री के दर्शन कर अपनी भावनाएँ व्यक्त कीं, जिन पर आचार्यश्री ने उन्हें मंगल आशीर्वाद प्रदान किया। अणुव्रत विश्व भारती सोसायटी के मंत्री मनोज सिंघवी एवं जीवन विज्ञान प्रकल्प से जुड़े रमेश पटावरी ने अपनी अभिव्यक्ति दी। अणुव्रत विश्व भारती सोसायटी के पर्यवेक्षक मुनि मननकुमारजी ने अपने विचार रखे। तेरापंथ प्रोफेशनल फोरम के राष्ट्रीय अध्यक्ष हिम्मत माण्डोत ने भी अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त किया।