संबोधि

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

संबोधि

११. अमनोज्ञसंप्रयोगे, नात्तं ध्यायन् कदाचन। 
      मनोज्ञविप्रयोगे च, मनसः स्वास्थ्यमाप्स्यसि।।
अमनोज्ञ विषयों का संयोग होने और मनोज्ञ विषयों का वियोग होने पर तू आर्त्तध्यान मत कर, अपने मानस को चिंता से पीड़ित मन बना, इस प्रकार तू मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होगा।
१२. रोगस्य प्रतिकाराय, नातं ध्यायंस्तथा त्यजन्।
      फलाशां भोगसंकल्पान्, मनसः स्वास्थ्यमाप्स्यसि।।
रोग के उत्पन्न होने पर चिकित्सा के लिए आर्त्तध्यान मत कर तथा भौतिक फल की आशा और भोग-विषयक संकल्पों को छोड़, इस प्रकार तू मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होगा।
१३. शोकं भयं घृणां द्वेषं, विलापं क्रन्दनं तथा। 
        त्यजन्नज्ञानजान् दोषान्, मनसः स्वास्थ्यमाप्स्यसि।।
शोक, भय, घृणा, द्वेष, विलाप, क्रंदन और अज्ञान से उत्पन्न होने वाले दोषों को तू छोड़, इस प्रकार तू मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होगा।
१४. लब्धानां नाम भोगानां, रक्षणायाचरेज्जनः। 
      हिंसां मृषा तथाऽदत्तं, तेन रौद्रः स जायते॥
मनुष्य प्राप्त भोगों की रक्षा के लिए हिंसा, असत्य और चोरी का आचरण करता है, और उससे वह रौद्र बनता है।
१५. तथाविधस्य जीवस्य, चित्तस्वास्थ्यं पलायते। 
      संरक्षणमनादृत्य, मनसः स्वास्थ्यमाप्स्यसि।।
जो मनुष्य रौद्र होता है उसका मानसिक स्वास्थ्य नष्ट होता है। तू भोगों की रक्षा का प्रयत्न मत कर, इस प्रकार तू मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होगा।
१६. रागद्वेषौ लयं यातौ, यावन्तौ यस्य देहिनः। 
      सुखं मानसिकं तस्य, तावदेव प्रजायते।।
जिस मनुष्य के राग-द्वेष का जितनी मात्रा में विलय होता है, उसे उतनी ही मात्रा में मानसिक सुख प्राप्त होता है।