मानव जीवन में संयम-निर्जरा की आराधना करने का हो प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 26 जुलाई, 2025

मानव जीवन में संयम-निर्जरा की आराधना करने का हो प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण

शांतिदूत परम पूज्य आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए कहा — जो आश्रव हैं, वे ही परिश्रव हैं; जो परिश्रव हैं, वे ही आश्रव हैं। नव तत्त्वों में एक तत्त्व है — आश्रव। कर्म बंधन का हेतु आश्रव होता है। जन्म-मरण के क्रम का हेतु भी आश्रव होता है। आश्रव पाँच हैं — मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग। पाँच प्रकार के आश्रवों में प्रथम चार नितांत अशुभ होते हैं, अर्थात् उनसे निर्जरा नहीं होती है। योग आश्रव शुभ भी होता है और अशुभ भी। ‘आयारो’ में जो कहा गया है कि जो आश्रव हैं, वे ही परिश्रव हैं — इसे हम योग आश्रव के संदर्भ में समझ सकते हैं। योग आश्रव से पापकर्म का बंध भी हो सकता है और निर्जरा भी। ‘योग’ आश्रव भी है और ‘योग’ निर्जरा भी है। शुभ योग भी आश्रव है, लेकिन वह पुण्य के रूप में होता है। आदमी की एक ही प्रवृत्ति बंध का हेतु भी बन सकती है और वही प्रवृत्ति निर्जरा का हेतु भी बन जाती है। जिस प्रवृत्ति के साथ मोहकर्म जुड़ जाता है, वह बंध कराने वाली होती है, और जिस प्रवृत्ति के साथ मोहकर्म नहीं जुड़ता, वह कर्म निर्जरा का हेतु बन जाती है।
आदमी को अपनी निर्जरा पर ध्यान देने का प्रयास करना चाहिए और पापकर्मों के बंधन से बचने का प्रयास करना चाहिए। आठ कर्मों में चार — ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय — एकांत पाप के कर्म हैं। इन कर्मों से आत्मा के गुणों की हानि होती है। शेष चार — वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुष्य कर्म — ये पुण्यात्मक और पापात्मक दोनों प्रकार के होते हैं। ये कर्म आत्मगुणों की हानि करने वाले नहीं होते। मोक्ष जाने के लिए आठों कर्मों का क्षय अनिवार्य है। मानव जीवन में आदमी जितना धर्म कर लेता है, वह उसके लिए उतना ही कल्याणकारी हो सकता है। मानव जीवन में जितना धर्माचरण हो सके, उतना करना चाहिए ताकि नए कर्मों का बंधन न हो। सामायिक, पौषध, जप, तप आदि द्वारा संयम-निर्जरा की आराधना करने का प्रयास करना चाहिए। अहमदाबाद चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति के अध्यक्ष अरविंद संचेती ने ‘बेटी तेरापंथ की’ सम्मेलन के संदर्भ में अपनी भावाभिव्यक्ति प्रस्तुत की। अहमदाबाद की बेटियों ने भावनात्मक गीत के माध्यम से अपनी श्रद्धा प्रकट की।
दामाद विनीत चौधरी ने भी एक सराहनीय प्रस्तुति दी, जिसके पश्चात उपस्थित समस्त दामादों ने सामूहिक रूप से गीत का संगान किया। ‘बेटी तेरापंथ की’ की राष्ट्रीय संयोजिका कुमुद कच्छारा तथा जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा के अध्यक्ष मनसुखलाल सेठिया ने भी सम्मेलन के संदर्भ में अपने विचार साझा किए। आचार्यश्री ने सम्मेलन में उपस्थित समस्त बेटियों, दामादों, दोहिता-दोहितियों एवं समधियों को संबोधित करते हुए कहा— 'जीवन के संस्कार एक महान संपदा होते हैं, जिनका प्रभाव इस जीवन तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि आगामी जीवनों तक बना रहता है।
अच्छे संस्कारों से युक्त व्यक्ति समाज और परिवार, दोनों के लिए कल्याणकारी होता है। बेटियां दो घरों की प्रतिनिधि होती हैं—पीहर और ससुराल। यदि वे संस्कारी और ज्ञानवती हों, तो दहलीज के दीपक के समान दोनों घरों को आलोकित कर सकती हैं। महासभा द्वारा आयोजित यह सम्मेलन धार्मिक चेतना को सुदृढ़ करने, पारस्परिक जुड़ाव को प्रगाढ़ करने और आत्मिक परिष्कार हेतु एक उत्कृष्ट अवसर प्रदान करता है।'
आचार्य प्रवर ने आगे कहा— 'यह केवल लौकिक संबंधों का आयोजन नहीं है, अपितु आध्यात्मिक ऊर्जा से जुड़ने का भी एक अनूठा माध्यम है। इस पावन वातावरण में सम्मिलित छोटे बच्चों को भी श्रेष्ठ संस्कार एवं जीवन प्रेरणा प्राप्त हो सकती है।' कार्यक्रम के समापन पर आचार्यश्री ने उपस्थित बालकों को अपनी जिज्ञासाएं प्रस्तुत करने की आज्ञा प्रदान की। बालकों ने उत्साह और सरलता के साथ अपनी जिज्ञासाएं प्रकट कीं, जिन्हें आचार्यश्री ने गहनता एवं सहजता से समाहित किया।