साधना, संयम और तप से प्राप्त हो सकती है उत्तम गति : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 28 जुलाई , 2025

साधना, संयम और तप से प्राप्त हो सकती है उत्तम गति : आचार्यश्री महाश्रमण

युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन देशना प्रदान करते हुए कहा— 'दुनिया में अनेक दर्शन और विचारधाराएँ हैं। इन दर्शनों और विचारधाराओं को मानने वाले अनुयायी भी हो सकते हैं। जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन, नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, चार्वाक आदि अनेक दर्शन हैं, जिनके अपने-अपने ग्रंथ हैं। लोगों का संपर्क जब किसी भी दर्शन के व्याख्याकारों से हो जाता है और यदि उन्हें सावद्य कार्यों का निर्देश भी मिल जाए — अथवा जैसे चार्वाक दर्शन में यह मान्यता है कि आगे-पीछे कुछ नहीं है, केवल मौज करो — तो भिन्न-भिन्न संपर्कों और स्वयं के संस्कारों के कारण व्यक्ति पापकर्मों में भी संलग्न हो सकता है।
यदि किसी व्यक्ति की आस्था नास्तिकवाद के दर्शन में हो जाए, तो वह धर्म को महत्व ही नहीं देगा और हिंसा, असत्य, विषय-भोग, भोगासक्ति आदि में लिप्त होकर अधोगति को प्राप्त कर सकता है। ऐसे व्यक्ति, जो हिंसा आदि में रचे-पचे होते हैं, नरकादि दुर्गति को प्राप्त कर सकते हैं। हम मनुष्य हैं। मनुष्य मरने के पश्चात नरक, तिर्यंच, मनुष्य या देवगति में जन्म ले सकता है। कोई मनुष्य पाँचवीं गति—मोक्ष—को भी प्राप्त कर सकता है। यह सिद्धांत है कि मोक्षगति केवल मनुष्य भव से ही प्राप्त हो सकती है। जो व्यक्ति महारंभ, महापरिग्रह, पंचेन्द्रिय वध या मांसाहार जैसे भोगों में आसक्त रहते हैं, और यदि इन दुष्परिणामों में उनका आयुष्य बंध हो जाए, तो वे नरकगति को प्राप्त कर सकते हैं। जो मनुष्य असत्य बोलते हैं, छल-कपट, माया और गूढ़माया करते हैं, कूट माप-तौल करते हैं—तो ऐसे परिणामों में यदि आयुष्य का बंध हो जाए, तो वे तिर्यंचगति को प्राप्त कर सकते हैं।
जो व्यक्ति भद्र, दयालु और सदाचारयुक्त हैं, वे मरकर पुनः मनुष्य योनि में जन्म ले सकते हैं। जो व्यक्ति त्यागी, तपस्वी और साधु हैं, यदि उनकी साधु अवस्था में आयुष्य का बंध होता है, तो वे देवगति—और उसमें भी वैमानिक देवगति—को प्राप्त करते हैं। सिर्फ साधु ही नहीं, यदि कोई श्रावक भी तपस्वी और धर्मपरायण है, तो देवगति का आयुष्य बंध होने पर वह भी वैमानिक देवगति को प्राप्त करता है। यदि कोई मिथ्यात्वी व्यक्ति तपस्या करता है और उन परिणामों में उसका आयुष्य बंध होता है, तो वह मनुष्य भी देवगति में जन्म ले सकता है। परंतु सम्यक्त्व अवस्था में नरक, तिर्यंच, स्त्रीवेद, नपुंसक, भवनपति, व्यंतर और ज्योतिष्क—इन सात गतियों में आयुष्य का बंध नहीं होता।
यदि सम्यक्त्व चला गया और मिथ्यात्व आ गया, तो मनुष्य का पतन होकर वह दूषित गति को प्राप्त कर सकता है। ‘आयारो’ में कहा गया है कि अगली गति दुर्गति न हो और उत्तम गति प्राप्त हो—इसके लिए साधना, संयम और तप का जीवन में होना आवश्यक है। तभी नरक, तिर्यंच आदि गतियों से बचा जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति का जन्म अच्छे कुल में होता है, तो उसे धर्म की प्राप्ति में सुविधा मिल सकती है और उसके संस्कार भी श्रेष्ठ हो सकते हैं। हमें सज्जन व्यक्तियों और साधु-संतों के संपर्क में रहना चाहिए। श्रमण निर्ग्रंथों की पर्युपासना से श्रवण का लाभ होता है और श्रवण से ज्ञान प्राप्त होता है। ज्ञान से हेय और उपादेय का विवेक उत्पन्न होता है, जिससे त्याग की चेतना जाग्रत होती है, और वह व्यक्ति आगे बढ़ते-बढ़ते मोक्ष को प्राप्त करने वाला भी बन सकता है।