मन में न हो हिंसा के भाव : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 24 जुलाई, 2025

मन में न हो हिंसा के भाव : आचार्यश्री महाश्रमण

वीर भिक्षु समवसरण में जैन श्वेताम्बर तेरापंथ के एकादशम अनुशास्ता युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण ने आयारो आगम के माध्यम से पावन संबोध प्रदान करते हुए कहा – यह अहिंसा धर्म है, यह शुद्ध है, यह नित्य है, यह शाश्वत है और सर्वज्ञाें के द्वारा लोक को जानकर प्रवेदित है। अहिंसा धर्म शुद्ध इसलिए है कि उसमें राग-द्वेष की कोई चीज नहीं है। जहाँ राग-द्वेष होता है, वहाँ अशुद्धता हो सकती है। अहिंसा राग-द्वेष रहित है। हिंसा द्रव्य हिंसा हो सकती है, भाव हिंसा हो सकती है और द्रव्य-भाव हिंसा हो सकती है। द्रव्य हिंसा में प्राणी का मरण तो होता है, परंतु संबंधित व्यक्ति को पाप नहीं लगता। भाव हिंसा में प्राणी न भी मरे, तो भी संबंधित व्यक्ति को पाप लगता है। द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा दोनों संयुक्त हों तो प्राणी भी मरता है और वधक व्यक्ति को पाप भी लगता है। इस प्रकार हिंसा के तीन प्रकार हो जाते हैं।
जैसे एक महामुनि भावितात्मा अणगार साधु चल रहा है, जागरूक है, प्रमाद में नहीं है, परंतु योग-संयोग से कोई एक प्राणी पैर के नीचे आ गया, प्राणी का प्राण नियोजन हो गया, साधु के पाँव के कारण प्राणी मरा है — यहाँ हिंसा तो हुई है, परंतु यह द्रव्य हिंसा है। प्राणी के मर जाने पर भी भावितात्मा अणगार को पाप नहीं लगेगा। भाव हिंसा में हम देखें कि एक शिकारी बाण हाथ में लिए है, सामने एक हिरण पर शिकार का लक्ष्य है। उस शिकारी ने बाण छोड़ा और संयोग से वह हिरण थोड़ा आगे हो गया। निशाना दीवार पर लगा। यहाँ मृग मरा नहीं है, लेकिन शिकारी पाप का भागी बन गया क्योंकि शिकारी ने अपनी ओर से हिंसा का कार्य कर दिया। यह भाव हिंसा है। तीसरा उदाहरण – कोई शिकारी धनुष-बाण हाथ में लिए बाण छोड़ता है, बाण मृग को लग गया और मृग मर गया। यहाँ द्रव्य हिंसा भी है और भाव हिंसा भी है।
आयारो में कहा गया है — यह अहिंसा धर्म है, शुद्ध है, शाश्वत है। मन में हिंसा के भाव न हों। अहिंसा का सर्व प्राणातिपात विरमण के रूप में त्याग होना बहुत बड़ी अहिंसा है। तीन करण – तीन योग से, अर्थात् नव कोटि से साधु के हिंसा का त्याग होता है। श्रावक का त्याग साधु जितना नहीं होता, परंतु साधुओं की साधना की अनुमोदना करने की भावना हो कि मैं भी साधुओं की तरह साधना में आगे बढ़ूँ। जितना हिंसा का त्याग हो सके, वह त्याग हम करते रहें। उपासक श्रेणी को संबोधित करते हुए आचार्यश्री ने फरमाया कि केवल ज्ञान करना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु प्रश्नों का समाधान किस प्रकार किया जाए — यह योग्यता भी होना आवश्यक है। अतः उपासक प्रवेत्ता भी बनें और प्रवक्ता भी बनें।
आचार्यश्री ने ‘तेरापंथ प्रबोध’ का संगान एवं सारगर्भित व्याख्यान प्रस्तुत कर श्रद्धालुओं को आध्यात्मिक ऊर्जा से अभिसिंचित किया। उनकी मंगलवाणी के उपरांत साध्वीवर्याजी ने भी उद्बोधन के माध्यम से जनसमूह को आत्मविकास की दिशा में प्रेरित किया। इस अवसर पर तपस्वियों ने आचार्यश्री के श्रीमुख से अपनी-अपनी तपस्याओं का प्रत्याख्यान किया। साथ ही, पारसमल दूगड़, डॉ. अमित बाबेल एवं डॉ. रूचि खाब्या ने अपने भावपूर्ण विचारों के माध्यम से श्रद्धासिक्त अभिव्यक्ति प्रदान की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।