आलस्यवश कल पर नहीं टालें अच्छा काम : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 27 जुलाई, 2025

आलस्यवश कल पर नहीं टालें अच्छा काम : आचार्यश्री महाश्रमण

जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम अनुशास्ता, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से पावन संबोध प्रदान करते हुए कहा— 'अध्यात्म की भावना और भौतिकता का आकर्षण — ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी प्रतीत होते हैं। जहाँ अध्यात्म का आकर्षण पुष्ट होगा, वहाँ भौतिक आकांक्षाएँ, कामनाएँ और लालसाएँ कमजोर हो सकती हैं और जहाँ भौतिकता का अधिक आकर्षण तथा सुख-सुविधाओं की तीव्र लालसा होती है, वहाँ आध्यात्मिक भाव नगण्य, कमजोर या नष्टप्राय हो सकता है। हमारे जीवन में भौतिकता भी है और आत्मा भी। हमारा पूरा जीवन दो तत्त्वों — आत्मा और पुद्गल — से बना हुआ है। जहाँ केवल आत्मा होती है, जैसे सिद्ध भगवान की स्थिति में, वहाँ शरीर नहीं होता और वे जन्म-मरण से मुक्त होते हैं। वहीं जहाँ केवल शरीर हो और आत्मा न हो, वहाँ जीवन भी संभव नहीं।
शास्त्र में कहा गया है कि जब मनुष्य मृत्यु के विषय में अवबोध प्राप्त कर लेता है, तब उसके लिए कोई भी समय अनवसर या अनुपयुक्त नहीं रहता। अनित्यता की भावना भीतर विरक्ति का भाव उत्पन्न कर सकती है। बारह भावनाओं में पहली भावना अनित्यता की ही है। प्रेक्षाध्यान पद्धति में भी एक प्रयोग है — अनित्य अनुप्रेक्षा, जिसमें अनित्यता के चिंतन का क्रम चलता है। मृत्यु के विषय में कहा गया है कि इसका कोई निश्चित समय नहीं होता — यह कभी भी आ सकती है। इसके अनेक द्वार और मार्ग हो सकते हैं — जैसे आयुष्य पूर्ण होने पर, दुर्घटना या बीमारी के कारण, अथवा आत्महत्या या धार्मिक कारणों से अनशन द्वारा भी मृत्यु संभव है। मनुष्य को यह समझना चाहिए कि वह संसार में अमर नहीं है। कोई भी अच्छा कार्य, जो वह आज कर सकता है, उसे आलस्यवश कल पर नहीं टालना चाहिए। कोई भी धार्मिक कार्य हो, तो उसे तुरंत प्रारंभ करना चाहिए।
जैसे-जैसे उम्र बढ़े, वैसे-वैसे जीवन में बदलाव लाना चाहिए। 75 वर्ष की आयु के बाद व्यक्ति को धर्म की ओर एक निर्णायक मोड़ लेना चाहिए और अधिकाधिक धार्मिक व आध्यात्मिक साधना में स्वयं को नियोजित करने का प्रयास करना चाहिए। सामायिक, त्याग-प्रत्याख्यान, स्वाध्याय आदि में मन लगाना चाहिए। सांसारिक प्रवृत्तियों से निवृत्ति की ओर प्रस्थान करना चाहिए। तेरापंथ की बेटियों को संबोधित करते हुए आचार्यश्री ने कहा कि वे जहाँ भी रहें, अपनी धार्मिक आस्था और संस्कारों को सदैव अपने साथ बनाए रखें। साध्वी प्रमुखाश्रीजी ने संबोधन में कहा कि माँ का एक बालक के जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान होता है। एक अशिक्षित माँ भी अपने बालक को श्रेष्ठ संस्कार देकर उसके जीवन व चरित्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।