कषाय को छोड़ने वाला बन सकता है अभय : आचार्य श्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 22 जुलाई, 2025

कषाय को छोड़ने वाला बन सकता है अभय : आचार्य श्री महाश्रमण

‘वीर भिक्षु समवसरण’ में उपस्थित श्रद्धालुओं को ‘आयारो’ आगम के माध्यम से शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि आदमी के भीतर भय की वृत्ति भी होती है। आदमी डरता है, किंतु कुछ मनुष्य ऐसे भी होते हैं जो पूर्णतया अभय हो जाते हैं। आगम में उनके लिए अकुतोभय शब्द आता है। जिन्हें किसी से कोई भय न हो, जिन्हें किसी भी दिशा से भय न हो—वही अकुतोभय अर्थात् अभय कहलाता है। प्रश्न उठ सकता है कि अकुतोभय कैसे बना जा सकता है? आगम में इसका समाधान दिया गया है—लोक को जानकर। यहाँ ‘लोक’ का अर्थ कषाय के रूप में किया गया है। कषाय अर्थात्—क्रोध, अहंकार, माया और लोभ। इन्हें जानकर, समझकर, और छोड़ने का प्रयास किया जाए, तो व्यक्ति अभय बन सकता है।
ज्ञान की प्राप्ति एक अच्छी बात है, किंतु ज्ञान के साथ-साथ उसकी क्रियान्विति भी हो, तो वह और भी श्रेष्ठ होती है। ज्ञान होता है, तो आचरण भी होना चाहिए। जो जीव-अजीव को नहीं जानता, वह भला संयम कैसे कर सकता है? शास्त्र में बताया गया है कि यदि मनुष्य कषायों को जान ले और फिर उन्हें छोड़ दे, तो वह अकुतोभय अर्थात् अभय बन सकता है। मनुष्य को दुःख का भय लगता है। जब कषाय ही नहीं रहेंगे, तो दुःख भी नहीं रहेगा; और जब दुःख नहीं रहेगा, तब व्यक्ति अभय बन सकता है। साधना का अत्यंत महत्वपूर्ण तत्व है—कषायों पर विजय प्राप्त करना। कभी-कभी व्यक्ति गुस्से में आकर कुछ गलत बोल देता है या कोई अनुचित कार्य कर बैठता है। गुस्सा शांत होने पर उसे भय होता है कि अब आगे क्या होगा? यह भय, गुस्से रूपी कषाय के कारण उत्पन्न होता है। इसी प्रकार, अहंकार, छल-कपट और लोभ के कारण भी भय उत्पन्न होता है। मनुष्य कषायों के वशीभूत होकर जो गलत कार्य करता है, उसके आगामी परिणामों को लेकर वह भयभीत हो जाता है। अतः मनुष्य को अपने जीवन में कषायों को पतला अथवा पूर्ण रूप से क्षय करने का प्रयास करना चाहिए।
जीव अपने दुःख स्वयं उत्पन्न करता है। दूसरे लोग भले ही दुःख देने में निमित्त बन जाएं, परंतु दुःख का मूल कारण व्यक्ति के स्वयं द्वारा किए गए कर्म ही होते हैं। इसलिए यदि कषायों को दूर किया जा सके, तो वैसे कर्म नहीं बंधेंगे, भय नहीं रहेगा और व्यक्ति अकुतोभय—अभय बन जाएगा। प्रवचन के उपरांत आचार्यश्री ने ‘तेरापंथ प्रबोध’ का संगान किया तथा उसका सारगर्भित व्याख्यान प्रस्तुत कर श्रद्धालुजनों को भावविभोर किया। इस अवसर पर अहमदाबाद में चल रही पचरंगी तपस्या के अंतर्गत तपस्वियों ने अपनी-अपनी तपस्याओं का प्रत्याख्यान किया। कार्यक्रम के दौरान शांतिलाल चोरड़िया ने आचार्यश्री की सन्निधि में भावपूर्ण गीत की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।