संबोधि

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

संबोधि

 'मेकेरियस' नामक साधक से किसी ने पूछा-कृपया बताएं कि मोक्ष का मार्ग क्या है? संत ने कहा- 'यह सामने कब्रिस्तान है। प्रत्येक कब्र पर जाओ और सबको गाली देकर आओ।' उसने सोचा कहां आ गया? इससे मोक्ष का संबंध है क्या? खैर, वह गया और गाली देकर आ गया। संत ने कहा-'एक बार फिर जाओ, और इस बार उसकी स्तुति करके आओ।' वह सब की स्तुति करके चला आया। संत ने पूछा- 'किसी ने कुछ उत्तर दिया? कहा नहीं।' बस यही साधना है। यही मोक्ष का मार्ग है। जीवन में राग-द्वेष, मान-अपमान आदि सभी स्थितियों में सम रहना, भीतर भी कोई उत्तर पैदा न होना, यही है मुक्ति का मार्ग। समाधिशतक में आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है-
अपमानादयस्तस्य, विक्षेपो यस्य चेतसः। 
नापमानाव्यस्तस्य, न क्षेपो यस्य चेतसः॥
जिसका मन शांत नहीं है, विक्षिप्त है, अपमान आदि उसी को पीड़ित करते हैं। जिस का चित्त शान्त है, उसके लिए अपमान आदि कुछ नहीं हैं।' जितनी मात्रा में राग-द्वेष की क्षीणता है उतनी ही मात्रा में मानसिक आनंद भी परिपूर्ण रूप से अभ्युदित हो जाता है। साधक के चरण पूर्णता की ओर बढ़े।
इन श्लोकों (४-१६) में मानसिक स्वास्थ्य के उपायों का दिग्दर्शन कराया गया है। वे संक्षेप में ये हैं –
(१) मानसिक आवेगों का निराकरण 
(२) कायोत्सर्ग का अभ्यास 
(३) विषयों की विस्मृति और विरक्ति 
(४) संयोग और वियोग में संतुलन 
(५) संकल्प-विकल्प से छुटकारा 
(६) अज्ञान का निराकरण 
(७) हिंसा आदि का त्याग 
(८) भोगों की रक्षा का त्याग 
(९) राग-द्वेष का विलय 
(१०) आत्मार्पणता 
(११) आत्मलीनता आदि।