क्रोध को उपशांत करने का हो प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 02 अगस्त, 2025

क्रोध को उपशांत करने का हो प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण

तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम् अनुशास्ता ‘शांतिदूत’ आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से पावन पाथेय करते हुए कहा कि आदमी के भीतर अनेक वृत्तियां विद्यमान रह सकती हैं। वीतरागता प्राप्त हो जाती है, क्षीण मोह की स्थिति प्राप्त हो जाती है तो राग-द्वेषात्मक वृत्तियां समूल रूप से समाप्त हो जाती हैं। सामान्य आदमी अथवा छठे गुणस्थान वाले साधु में अनेक वृत्तियां प्रकट होती हैं। ‘आयारो’ आगम में कहा गया है कि क्रोध रूपी वृत्ति को अलग करने, कम करने अथवा उसे सम्पूर्ण रूप से समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए। गुस्से का विवेक करना चाहिए।
आदमी को कई बार न चाहते हुए भी गुस्सा आ जाता है, आक्रोश का भाव आ जाता है। यह गुस्सा शाश्वत नहीं होता, थोड़े समय का ही होता है। अभव्य जीव, जिसमें मोक्ष गमन की योग्यता नहीं होती, में गुस्सा शाश्वत रूप में होता है। शेष तो किसी भी मानव में गुस्सा लम्बे काल तक नहीं रहता। किसी पर गुस्सा आया, लेकिन कुछ समय बाद ही वह गुस्सा शान्त हो जाता है। शास्त्र में बताया गया है कि गुस्से का आयुष्य लम्बा नहीं होता, इसलिए आदमी को इस गुस्से का ही परित्याग करने का प्रयास करना चाहिए।
गुस्सा आता है तो आत्म-प्रदेशों में अस्थिरता होती है। गुस्से का कालमान ज्यादा नहीं होता तो आदमी का जीवनकाल भी सीमित होता है। इस अनिश्चित जीवनकाल में आदमी क्यों किसी की शांति भंग करे, क्यों किसी से लड़ाई-झगड़ा कर आपसी सम्बन्धों को बिगाड़े? इसलिए आदमी को गुस्से का विवेक करने का प्रयास करना चाहिए और जितना संभव हो सके, गुस्से को कृश करने का, उपशांत ही रहने देने का प्रयास करना चाहिए। दीर्घ श्वास के साथ प्रेक्षाध्यान का प्रयोग भी गुस्से को कम कर सकता है। कभी गुस्सा भी आए तो आदमी को मौन कर लेना चाहिए। योग में गुस्सा आ जाए तो मन भी दूषित हो जाता है। आदमी को अपनी प्रकृति को बदलने का प्रयास करना चाहिए।
आदमी कहीं भी रहे—ऑफिस, दुकान, घर, बाजार या समाज—कहीं भी गुस्सा काम का नहीं होता। आदमी को शांति में रहने का प्रयास करना चाहिए। गुस्से को उपशांत करने के लिए आदमी को थोड़ी देर के लिए मौन भी कर लेना चाहिए। कहीं कोई निर्णय भी करना हो तो शांति के साथ करने का प्रयास होना चाहिए। युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में ‘संस्था शिरोमणि’ जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा के तत्वावधान में चतुर्थ ‘तेरापंथ ग्लोबल समिट’ के द्विदिवसीय आयोजन का शुभारंभ हुआ। इस समिट का थीम था — ‘सृजन एवं समन्वय, आओ बने भिक्षुमय।’ इसमें भाग लेने के लिए 13 देशों के 171 प्रवासी तेरापंथी परिवार अपने आराध्य की मंगल सन्निधि में उपस्थित हुए। समिट के कन्वेनर जयेशभाई शाह, महासभा के अध्यक्ष मनसुखलाल सेठिया, डॉ. राज सेठिया और नरेश मेहता ने अपनी अभिव्यक्ति दी। मुख्यमुनिश्री महावीरकुमारजी ने भी प्रवासी तेरापंथी सदस्यों को उद्बोधित किया।
आचार्यश्री महाश्रमणजी ने कहा कि तेरापंथ के लोग न केवल भारत में, बल्कि विदेशों में भी बस गए हैं। पिछले कुछ वर्षों में तेरापंथी महासभा के तत्वावधान में एक सुंदर परंपरा बनी है, जिसमें इन बिखरे हुए मोतियों को एक माला में पिरोया जा रहा है। यह एक सराहनीय उपक्रम है। हमारी समण श्रेणी भी विदेश जाकर वहां रहने वाले परिवारों को धार्मिक लाभ पहुंचाती है, जिससे सभी को अच्छा आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होता है। एक साथ यहां आने से भी अत्यधिक लाभ होता है। पर्युषण की उत्तम आराधना हो, संवत्सरी का उपवास और अन्य आध्यात्मिक उपक्रम अच्छे ढंग से चलें — यही उद्देश्य है। यह सम्मेलन सभी के लिए एक उत्तम आध्यात्मिक खुराक सिद्ध हो।