
गुरुवाणी/ केन्द्र
अहिंसा में सुख और हिंसा में है दुःख : आचार्यश्री महाश्रमण
प्रेक्षा विश्व भारती, कोबा में वीर भिक्षु समवसरण में ‘आयारो’ आगम के माध्यम से मंगल देशना प्रदान करते हुए तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम अनुशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने फरमाया – दुःख का कारण क्या है? दुःख का कारण बताया गया है – आरंभ। आरंभ (हिंसा) से दुःख पैदा होता है। दुःखों की जननी, दुःखों को पैदा करने वाली हिंसा होती है। व्यावहारिक रूप में देखें तो जहां हिंसा होती है, वहां दहशत फैलती है और लोग दुःखी बन जाते हैं। कोई झूठी अफवाह भी दुःख का कारण बन सकती है। दो राष्ट्रों के बीच यदि युद्ध होता है तो दोनों ही ओर के लोगों में दहशत और भय उत्पन्न हो जाता है। हिंसा मानसिक दहशत फैलाने वाली और व्यक्ति को दुःखी बनाने वाली बन जाती है। युद्ध विकास में भी बाधक है और अर्थ की हानि का कारण भी बन सकता है।
नैश्चयिक-पारमार्थिक रूप में भी हिंसा दुःख का कारण है। गजसुकुमाल मुनि का उदाहरण लें तो जब उनके सिर पर अंगारे रखे गए, तो उन्हें कितना कष्ट हुआ होगा। सौमिल ब्राह्मण ने हिंसा का कार्य किया, उसने कष्ट दिया और बाद में स्वयं भी भयभीत हुआ होगा। गजसुकुमाल मुनि के पिछले जन्म के कर्मों के कारण यह दुःख की स्थिति बनी। उनके जीव ने एक छोटे बच्चे के सिर पर गरम रोटियां रखी थीं, उस जन्म में की गई हिंसा का परिणाम इस जन्म में दुःख और मृत्यु के रूप में मिला। अहिंसा में सुख है और हिंसा में दुःख है। जहां हिंसा है, वहां अशांति और जहां अहिंसा है, वहां शांति है। यदि आपके मन में अहिंसा है तो आपके मन में भी शांति और आसपास के लोगों में भी शांति होगी। यदि परिवार में लड़ाई-झगड़ा शुरू हो जाए तो स्वयं के साथ-साथ परिवार के अन्य लोगों के मन में भी अशांति हो जाती है। हिंसा चाहे छोटे रूप में हो या बड़े रूप में, वह अशांति पैदा करने में निमित्त बन सकती है। यह जानकर व्यक्ति को हिंसा से निवृत्त होना चाहिए और अहिंसा के रास्ते पर चलना चाहिए। व्यक्ति को क्षमा और सहिष्णुता रखनी चाहिए।
जीवन चलाने में होने वाली हिंसा का अल्पीकरण करने का प्रयास करें। खेती, आजीविका आदि में भी कैसे हिंसा कम हो सके, इसकी चेष्टा करनी चाहिए। ऐसा व्यापार जिसमें अधिक हिंसा हो, उससे यथासंभव बचना चाहिए। गृहस्थ जीवन में भी जितना हिंसा का अल्पीकरण हो सके, यह प्रयास होना चाहिए। भोजन में भी जमीकंद का उपयोग न करने का संकल्प होना चाहिए। मन में हिंसा का भाव न आए, वाणी में हिंसा की अनुमोदना न हो और शरीर से भी किसी को दुःख न पहुंचाएं। दुःख हिंसा से पैदा होता है, इसलिए हिंसा से निवृत्त रहने का प्रयास करना चाहिए।