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आध्यात्मिक और सांसारिक संदर्भों में रखें साध्य-साधन का विवेक : आचार्यश्री महाश्रमण
जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, शांतिदूत युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से पावन संबोध प्रदान करते हुए कहा कि आदमी सुख पाने के लिए प्रयत्न करता है। उसे समृद्धि मिले, सुख-सुविधा के साधन और धन-संपत्ति प्राप्त हों—इन आकांक्षाओं के साथ वह प्रयास करता है। कई बार अच्छे-बुरे का विचार गौण करके, निष्ठुर और निर्दय कार्य भी कुछ पाने के लिए कर लेता है। परिणामस्वरूप, सुख की जगह दुःख प्राप्त हो जाता है।
यदि कोई गृहस्थ है तो पैसा पाना भी उसका साध्य बन सकता है। उस साध्य की प्राप्ति के लिए यदि कोई व्यक्ति निष्ठुर हिंसा, बेईमानी, धोखाधड़ी, हेराफेरी आदि का सहारा लेता है तो उसका साधन गलत हो जाता है। संभव है कि उसे भौतिक सुख मिल जाए, लेकिन कई बार सुख की जगह दुःख और कठिनाई भी मिल सकती है। इस विषय में ध्यान रखना चाहिए कि साध्य दो प्रकार के होते हैं—एक आध्यात्मिक साध्य और दूसरा सांसारिक (लौकिक) साध्य। आध्यात्मिक साध्य की दृष्टि से मोक्ष पाना ही विशुद्ध साध्य है। स्वर्ग की कामना करना विशुद्ध साध्य नहीं है, क्योंकि वहां से पुनः लौटना पड़ता है, जबकि मोक्ष में पहुंच चुकी आत्मा अप्रकंप और शाश्वत रहती है। मोक्ष प्राप्ति का साधन ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप है। यह शुद्ध साध्य और शुद्ध साधन है।
सांसारिक संदर्भ में किसी का साध्य धनवान बनना या राजनीति में जाना हो सकता है। इसमें भी जितना संभव हो सके साधन अहिंसा और संयमयुक्त होना चाहिए। तभी गृहस्थ जीवन के साध्य की प्राप्ति भी कम पाप वाला, निर्मल साधन बन सकती है। ‘आयारो’ में कहा गया है कि सांसारिक साध्य को प्राप्त करने के लिए भी निष्ठुर कर्म नहीं करना चाहिए। प्रशासन से जुड़े लोगों का साध्य नगर में शांति-व्यवस्था स्थापित करना होता है। यह साध्य राष्ट्रीय दृष्टि से उचित है। किंतु इसके लिए प्रयत्न करते समय अहिंसा और संयम का ध्यान रखा जाना चाहिए। यदि समझाइश आदि से काम न बने तो मजबूरी में कठोर उपाय अपनाने पड़ सकते हैं, फिर भी यथासंभव साधन निर्मल बने रहें। इसी प्रकार व्यापार-धंधे में भी बेईमानी, झूठ और कपट न हो तो सांसारिक साधन की शुद्धता बनी रहती है।
इस प्रकार आध्यात्मिक और सांसारिक दोनों संदर्भों में साध्य-साधन का विवेक करना आवश्यक है। ‘आयारो’ में कहा गया है कि अज्ञानी, मूर्ख व्यक्ति निष्ठुर और निर्दय आचरण करता है और परिणामस्वरूप उसे सुख की जगह दुःख प्राप्त होता है। इसलिए गृहस्थ जीवन में भी जितना धर्म, त्याग और तपस्या का समावेश हो जाए, वही सबसे बड़ी संपत्ति है। मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ने ‘तेरापंथ प्रबोध’ आख्यान से जनता को लाभान्वित किया। राजू बैद ने भावाभिव्यक्ति दी। मुनि मदनकुमारजी ने तपस्या के संदर्भ में जानकारी दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।