कर्म अवश्य ही करता है कर्ता का अनुगमन : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 08 अगस्त,, 2025

कर्म अवश्य ही करता है कर्ता का अनुगमन : आचार्यश्री महाश्रमण

जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि किए हुए कर्म का फल भोगना होता है। अतीत में अच्छा कर्म किया है तो अच्छा फल मिलेगा, दुराचरण, बद आचरण, कदाचरण किया है तो उसका अशुभ फल मिल सकेगा। शास्त्रकार ने कहा है कि कर्म सफल होता है। यह जानकर ज्ञानी, शास्त्रों का जानकार, कर्मों का संचय न हो इस बात पर ध्यान देता है और कर्म संचय से निवृत्त हो जाता है। अर्थात् संवर की साधना करता है। कर्म अर्थात् व्यक्ति की जैसी प्रवृत्ति, अध्यवसाय जैसे होते हैं, उनसे कर्म पुद्गलों का आकर्षण होता है। कर्म आत्मा से बद्ध हो जाते हैं, फिर समय आने पर वे अपना फल देते हैं। कर्म का फल किस समय मिलेगा, इसे दो उदाहरणों द्वारा समझ सकते हैं - जैसे घड़ी में अलार्म लगा दिया जाता है तो घड़ी उतने समय पर बजने लगती है अथवा कोई टाइम बम की टाइमिंग सेट कर दी जाती है और वह समय पूरा होते ही फट जाता है। इसी प्रकार प्राणी ने जैसा कर्म बांधा है, समय आने पर वह वैसा ही फल देता है।
कर्म बंध दो प्रकार का है - पहला पाप कर्म का बंधन और दूसरा पुण्य कर्म का बंधन। पाप कर्म का बंधन होता है तो जीवन में कष्ट-कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं। हमें पहले यह ध्यान देना चाहिए कि पाप कर्मों का बंधन न हो। ज्ञानावरणीय कर्म बंध जब फल देता है तो मानसिक अक्षमता होती है, असातवेदनीय कर्म बंध से शारीरिक अक्षमता होती है। किसी पर झूठा आरोप लगा देने का परिणाम अपयश के रूप में भोगना पड़ता है। हिंसा, हत्या जैसे पाप कर्म ऐसे हैं जो सघन बंध कराने वाले होते हैं। व्यक्ति को ऐसे पाप कर्मों से बचने का प्रयास करना चाहिए।
व्यक्ति को पुण्य कर्म भी भोगने होते हैं। पुण्य कर्म का बंध अच्छे आचरणों से होता है। पुण्य का बंध होता है तो शारीरिक सक्षमता होती है। शारीरिक सक्षम व्यक्ति किसी को सेवा देने आदि कार्य कर सकता है। शरीर की सुंदरता, स्वस्थता होना भी पुण्याई का ही प्रतिफल होता है। इसलिए व्यक्ति को अपने वर्तमान जीवन का अच्छा उपयोग करना चाहिए। अच्छे कर्म, सेवा आदि में समय लगाने का प्रयास होना चाहिए। व्यक्ति को अपनी तपस्या, साधना आदि के संदर्भ में पुण्य कर्म के अर्जन का प्रयास नहीं करना चाहिए। व्यक्ति जब भी कोई तप करता है, साधना या सेवा करता है तो निर्जरा के साथ उसे पुण्य का भी अर्जन होता है। फिर भी व्यक्ति को अपने पुण्य कर्मों का निदान नहीं करना चाहिए। निदान करना वैसा है जैसे कोई व्यक्ति हीरे को कौड़ी के भाव बेच दे। साधुपन, संयम रत्न प्राप्त हो जाना बड़े सौभाग्य की बात होती है। व्यक्ति संवर की साधना करे तो कर्म के बंधन से बच सकता है।
आचार्यश्री भिक्षु जन्म त्रिशताब्दी का वर्ष चल रहा है। इसमें अपने संन्यास जीवन को तेजस्वी बनाने का प्रयास होना चाहिए। परम पूज्य भिक्षु स्वामी ने अपने जीवन में कितनी तपस्याएं कीं, साहित्य सृजन किया। उनके जीवन से सभी को प्रेरणा प्राप्त होती रहे। आचार्यश्री ने मंगल प्रवचन के उपरान्त चतुर्दशी के संदर्भ में हाजरी के क्रम को संपादित करते हुए विविध प्रेरणाएं प्रदान कीं। आचार्यश्री की अनुज्ञा से मुनि सिद्धकुमारजी व मुनि संयमकुमारजी ने लेखपत्र का वाचन किया। आचार्यश्री ने दोनों संतों को दो-दो कल्याणक बक्सीस किए। तदुपरान्त समुपस्थित चारित्रात्माओं ने अपने-अपने स्थान पर खड़े होकर लेखपत्र उच्चरित किया। प्रेक्षा कल्याण वर्ष के अंतर्गत आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में एक माह तक प्रेक्षा प्रशिक्षक प्रशिक्षण सघन साधना शिविर का क्रम चला। इस संदर्भ में पारसमूल दूगड़ ने जानकारी दी। उपस्थित शिविरार्थियों ने गीत का संगान किया। प्रेक्षा इंटरनेशनल के अध्यक्ष अरविंद संचेती ने अपनी अभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने सभी शिविरार्थियों को मंगल आशीर्वाद प्रदान किया।