
गुरुवाणी/ केन्द्र
भुक्त भोगों की ना हो स्मृति : आचार्यश्री महाश्रमण
महातपस्वी ज्योतिपुंज युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया - जिसकी आदि नहीं है, अतीत नहीं है और जिसका कोई अंत नहीं है, पश्चात्वर्ती भाग नहीं है, न जिसका पूर्व भाग है और न पश्चात् भाग है, उस चीज में मध्य भाग भी नहीं हो सकता। मध्य और वर्तमान होता है तो कोई अतीत और अनागत की बात भी संभवतः सर्वत्र या प्रायः होने की संभावना की जा सकती है। जैसे नमस्कार महामंत्र में मध्यवर्ती पद णमो आयरियाणं है तो पूर्व भी दो पद हैं और पश्चात् में भी दो पद हैं, तो इसे हम नमस्कार महामंत्र का मध्यवर्ती पद कह सकते हैं। जैसे कोई पुस्तक है, उसके बीच में एक सूत्र है तो उसके पहले भी कोई चीज है और बाद में भी कोई चीज है। सूत्र में कहा गया है कि अतीत के किसी भुक्त भोग की स्मृति नहीं की जाती है और भविष्य की कोई भोगाशंसा भीतर में भी नहीं है। इतनी परम साधना हो गई है तो वर्तमान में भी भोगाशंसा संभवतः रहेगी नहीं, और है तो बहुत जल्दी ही समाप्त होने की संभावना है। अतीत के भुक्त भोगों की ज्यादा स्मृतियां करते रहेंगे और भविष्य की भोगाशंसा पुष्ट कर लेंगे तो वर्तमान में भी भोगाशंसा हो सकेगी, रह सकेगी।
व्यक्ति के भीतर विषय, आकांक्षा, लालसा रहती है। अभी हमारे भीतर कषाय के संस्कार हैं तो अतीत में भी हमारे भीतर कषाय रहा है और वर्तमान की छद्मस्थता की स्थिति में कुछ आगे तक भी कषाय की अवस्था रहेगी। साधु में भी जब तक बारहवां गुणस्थान नहीं आएगा, किसी न किसी रूप में मोह और कषाय बना रहेगा, भले ही अनुदयावस्था में रहे। अध्यात्म की साधना में विषयाशंसा, भोगाशंसा, कामाशंसा भी परित्याज्य होती है। अठारह पापों के संदर्भ में बताया गया है - प्राणातिपात पापस्थान। कोई जीव की हिंसा करता है तो उसके प्राणातिपात के रूप में मोह का उदय हो रहा है। उस कर्म के उदय के कारण वह दूसरों के प्राणों का हरण करता है। अतीत का कर्म वर्तमान की हिंसा का कारण है और वर्तमान में की जा रही हिंसा से भविष्य के लिए पाप का बंध हो रहा है। केवलज्ञानी जो तेरहवें गुणस्थान में हैं, उनके भी ईर्यापथिकी क्रिया के रूप में बंध होता है। बंधा है तो भोग भी होगा और झड़ेगा भी। भोगने को मध्य मान लें, पूर्व का संबंध है और भविष्य में कर्म का झड़ना हो गया। आयारो में कहा गया है कि पूर्व और पश्चात् नहीं है तो फिर मध्य भी कैसे हो सकेगा। विषयाशंसा, भोगाशंसा में अतीत का स्मरण न किया जाए, भविष्य के लिए अनुचिंतन न किया जाए - यह सघन साधना है। तो वर्तमान में भी भोगाशंसा कमजोर पड़ जाएगी या फिर रह नहीं पाएगी।
*चौदह गुणस्थानों में साधना का एक सुंदर क्रम हमें संवर के संदर्भ में भी मिल सकता है। ज्यों-ज्यों संवर की साधना होगी, कषाय क्षीण होंगे या उपशांत होंगे। गुणस्थानों का विकास हो जाता है। चौथे गुणस्थान में मिथ्यात्व आश्रव नहीं रहता। पांचवें गुणस्थान में अव्रत आश्रव कुछ निरूद्ध हो जाएगा, सर्वथा अव्रत आश्रव रुक गया तो छठा गुणस्थान। प्रमाद आश्रव नहीं रहा तो सप्तम गुणस्थान। आगे कषाय की भी उपशांतता या क्षीणता होती जाती है। चौथे गुणस्थान में भी क्षायिक सम्यक्त्व उपलब्ध रह सकता है। तो छठा गुणस्थान है तो अतीत में भी कषाय रहा है और आगे भी रहेगा और वर्तमान में भी है। बारहवां गुणस्थान आ गया तो अतीत में तो कषाय रहा है, परंतु वर्तमान में नहीं है और आगे भी कभी जीव के परिणामों में कषाय-राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ का भाव नहीं आ सकेगा।*
व्यावहारिक रूप में हम गृहस्थ के जीवन में देखें कि जवानी की अवस्था है तो अतीत में कभी बचपन भी रहा है और आगे आयुष्य लंबा है तो वृद्धावस्था भी आ सकती है। जवानी को यदि मध्य मान लें, शैशव को अतीत मान लें और वार्धक्य को हम भविष्य मान सकते हैं। इस मध्यवर्ती अवस्था जवानी में आदमी संयम का यथोचित रूप में ध्यान रखता है। नशे और गलत व्यसनों से मुक्त रहता है तो उन अच्छे कार्यों के फल मिल सकते हैं। बचपन में परिपक्वता के अभाव में कोई ज्यादा कार्य न कर सके और भविष्य में वृद्धावस्था में शरीर में कमजोरी आ जाए तो आदमी ज्यादा कार्य न कर सके। युवावस्था में व्यक्ति को धर्मयुक्त कार्य करने का प्रयास करना चाहिए। अभी सक्षमता है तो इसका उपयोग अच्छे धार्मिक कार्य करने में करें। सेवा करें, दूसरे का हित करने का प्रयास करें। व्यवहार के परिवेश में आरोह-अवरोह की स्थितियां आ जाएं तो इन स्थितियों से हमारा मन ज्यादा अवांछनीय रूप से प्रताड़ित या प्रभावित न हो। मन में शांति रहे, समता भाव रहे, मन दुःखी न बने - साधना की यह भी एक स्थूल निष्पत्ति है।
आचार्य प्रवर की मंगल सन्निधि में अखिल भारतीय तेरापंथ महिला मण्डल के तत्त्वावधान में तेरापंथ कन्या मण्डल के 21वें त्रिदिवसीय अधिवेशन ‘आस्था’ के मध्य दिन संभागी कन्याएं पूज्य सन्निधि में मंचीय कार्यक्रम के लिए उपस्थित थीं। इस संदर्भ में अखिल भारतीय तेरापंथ महिला मण्डल की राष्ट्रीय अध्यक्ष सरिता डागा, राष्ट्रीय कन्या मण्डल प्रभारी अदिति सेखानी ने अपनी अभिव्यक्ति दी। अभातेममं की पदाधिकारियों द्वारा प्रतिवेदन भी पूज्यचरणों में प्रस्तुत किया गया। तेरापंथ कन्या मण्डल-अहमदाबाद द्वारा आस्था गीत को प्रस्तुति दी गई।
साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभाजी ने समुपस्थित कन्याओं को प्रतिबोध प्रदान करते हुए कन्याओं को सकारात्मक सोच, सहिष्णुता का विकास करने और जीवन को प्रकाशमय बनाने की प्रेरणा प्रदान की। तदुपरान्त शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने समुपस्थित कन्याओं को पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि वर्तमान में आचार्यश्री भिक्षु जन्म त्रिशताब्दी वर्ष चल रहा है। इस समय में जितना संभव हो सके तप, स्वाध्याय, जप आदि करने का प्रयास करना चाहिए। ये बालिकाएं इस वर्ष में आचार्यश्री भिक्षु के संदर्भ में स्वाध्याय करने का प्रयास करें। ‘तेरापंथ प्रबोध’ को कंठस्थ करने का प्रयास किया जा सकता है। बालिकाओं में धार्मिक विकास भी होना चाहिए। संस्कार अच्छे रहें, शक्ति अच्छी रहे और शक्ति का अच्छे कार्यों में होता रहे। कन्याओं में संस्कार आएं और उनकी सुरक्षा भी होती रहे।