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आत्मानुशासन श्रेष्ठ पर परानुशासन भी है आवश्यक : आचार्यश्री महाश्रमण
महामनस्वी, ज्योतिपुंज युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए कहा कि अनुशासन दो प्रकार का होता है—एक आत्मानुशासन और दूसरा परानुशासन। स्वयं का स्वयं पर अनुशासन होना आत्मानुशासन कहलाता है और किसी अन्य का किसी अन्य पर अनुशासन होना परानुशासन कहलाता है। आत्मानुशासन आत्मा के लिए हितकर हो सकता है। व्यक्ति स्वयं अपने मन, वाणी, शरीर और इन्द्रियों पर संयम और नियंत्रण रखता है, तो यह स्वयं के द्वारा स्वयं पर अनुशासन कहलाता है। अणुव्रत गीत में भी कहा गया है—'अपने से अपना अनुशासन, अणुव्रत की परिभाषा।' स्वयं के द्वारा स्वयं का अनुशासन ही अणुव्रत है।
आत्मानुशासन का महत्त्व है ही, परन्तु व्यवस्था की सुगमता की दृष्टि से और क्योंकि हर व्यक्ति में आत्मानुशासन विकसित नहीं होता, इसलिए परानुशासन की भी आवश्यकता हो जाती है। जिस व्यक्ति पर परानुशासन किया जाता है, वह उसे आत्मानुशासन की ओर ले जाने वाला होता है। आचार्य भिक्षु भी जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य अनुशास्ता और आद्य आचार्य थे। उनका आचार्यकाल लगभग तियालीस वर्ष का रहा। उस अवधि में उन्होंने अनेक दीक्षाएं और शिक्षाएं दीं तथा समीक्षाएं भी कीं। धर्मसंघ में उन्होंने अनुशासन को स्थापित किया।
आत्मानुशासन श्रेष्ठ है, परन्तु जब वह सबमें नहीं जागृत होता, तब परानुशासन आवश्यक हो जाता है। लोकतंत्र और राजतंत्र—दोनों में अनुशासन, व्यवस्था और नियम-कानून चलते हैं। किसी भी राज्य व्यवस्था में संविधान का होना एक बड़ा अनुशासन है। आचार्य भिक्षु ने भी तेरापंथ में संविधान, लिखत और मर्यादा की स्थापना की। किसी भी संगठन, राष्ट्र या संस्था में संविधान का होना अत्यंत महत्वपूर्ण है। विधान और व्यवस्था न होने पर वह लंबे समय तक कैसे चल सकता है? विधान और व्यवस्था हों और उनका पालन भी हो—यदि कहीं-कहीं उल्लंघन भी हो जाए—तो भी विधान का होना महत्वपूर्ण होता है। जहां नियम का उल्लंघन होता है, वहां दण्ड का भी विधान होता है। दण्ड की व्यवस्था होने से अन्य लोग भी नियमों का उल्लंघन करने से बचते हैं। इसलिए लोकतंत्र में न्यायपालिका की आवश्यकता होती है।
इसी प्रकार आचार्य भिक्षु ने भी अनुशासन की व्यवस्था की। उन्होंने यह नियम दिया कि सभी साधु-साध्वियां एक ही आचार्य के शिष्य होंगे। एक आचार्य के विधान का आज भी अनुपालन हो रहा है। यह एक मर्यादा और अनुशासन है। सभी के जीवन में अनुशासन बना रहे, यही काम्य है। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त अनेक तपस्वियों ने अपनी-अपनी तपस्या का आचार्यश्री के श्रीमुख से प्रत्याख्यान किया। पारसमूल दूगड़ ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी।