धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाश्रमण

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

भगवान महावीर को परम्परा में आचार्य भिक्षु एक क्रांतिकारी आचार्य हुए। उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों से अनुभव किया कि साधुत्व को निर्मल रखने के लिए कुछ नवीन संघीय मर्यादाओं का निर्माण आवश्यक है।
उस समय पृथक्-पृथक् शिष्य बनाने को परम्परा थी। मूलतः यह परम्परा दोषपूर्ण नहीं थी। किन्तु लगता है कि कालान्तर में साधु-समाज ने शिष्य-सम्पदा को अपनी प्रतिष्ठा का मानदण्ड बना लिया। जो कोई साधु थोड़ा-सा विद्वान् बन जाता, उसका चिन्तन होता– मैं भी दीक्षाएं दूं अपने शिष्य बनाऊं। साधु-समाज की यह धारणा पुष्ट हो चुकी थी कि श्रावक-समाज में अगर अपना वर्चस्व स्थापित करना है तो येन-केन प्रकारेण शिष्य-वर्ग की संख्या-वृद्धि आवश्यक है।
इस चिन्तन के प्रवाह में योग्य-अयोग्य का परीक्षण गौण हो गया। यहां तक कि दीक्षार्थी के माता-पिता को किसी धनवान श्रावक के द्वारा रुपये दिलाकर खरीद लिया जाता। वह सेठ उस दीक्षार्थी का धर्म पिता बनकर आज्ञा दे देता और दीक्षा हो जाती। दीक्षा एक तरह की खरीददारी बन चुकी थी। दीक्षा लेने वाले के मन में वैराग्य है या नहीं, यह अन्वेषणा नगण्य और दीक्षा देना ही साधु-समाज का मुख्य ध्येय बन गया। परिणामस्वरूप साध्वाचार शिथिलता की ओर जाने लगा। यह सब देखकर आचार्य भिक्षु ने सोचा-बढ़ती हुई इस शिष्य-लोलुपता पर रोक नहीं लगाई गई तो साधु-समाज निस्तेज और शक्तिहीन बन जायेगा। इसलिए उन्होंने अपने धर्म-संघ में सापवाद यह मर्यादा निर्मित की कि कोई भी साधु-साध्वी अपने-अपने शिष्य-शिष्याएं न बनाएं। सब शिष्य एक आचार्य के होंगे।
दूसरा प्रश्न उपस्थित हुआ कि भावी आचार्य की नियुक्ति कौन करेगा? आचार्य भिक्षु ने सोचा-
अगर चुनाव-प्रणाली स्थापित होगी तो गुटबन्दी और छिछली राजनीति साधु-समाज पर हावी हो जाएगी।
हर साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका सोचेगा कि धर्म संघ की बागडोर मेरे से नैकट्य रखने वाले साधु
के हाथ में आए।
संघ का हर सदस्य अपनी व्यक्तिगत तुच्छ स्वार्थपूर्ति करनेवाले को आचार्य पद पर आरूढ़ करने का अवांछनीय प्रयास करेगा। वहां आत्म-साधना गौण हो जाएगी। साधना के क्षेत्र में ऐसा होना सर्वथा अकाम्य है। आचार्य भिक्षु ने इसका सीधा-सा रास्ता खोजा। उत्तराधिकारी का मनोनयन स्वयं वर्तमान आचार्य करेगा और धर्म संघ के हर सदस्य को वह सहर्ष शिरोधार्य करना होगा, फिर चाहे वह मनोनयन किसी के मनोनुकूल हो या नहीं।
संगठन का आधार : अनाग्रही वृति
संघबद्ध साधना अनेक व्यावहारिक समस्याओं का समाधान है तो अनेक समस्याओं का आश्रयस्थल भी बन सकती है। एक से दो का होना जहां पारस्परिक सहयोग की स्थिति का उत्पन्न करता है वहीं पारस्परिक कलह का कारण भी बन सकता है। संघ अनेक व्यक्तियों का समूह होता है। संघ के सहारे साधना का अच्छा विकास हो सकता है। संघ की महिमा में कहा गया है-
आसासो वीसासो, सीयधरो य होइ मा भाहि।
अम्मापितिसमाणो, संघो सरणं तु सव्वेसिं।।
संघ आश्वास है, विश्वास है। शीतगृह-वातानुकूलित गृह के समान है। ऐसे संघ से डरो मत। यह माता-पिता के तुल्य है और सब प्राणियों के लिए शरण है।
आणाजुत्तो संघो, सेसो पुण अट्ठिसंघाओ।
संघ वह है, जहां आज्ञा प्रमाण होती है। जहां आज्ञा का महत्त्व नहीं, वह संघ केवल हड्डियों का ढेर है।
जहिं नत्थि सारणा वारणा य, पडिचोयणा य गच्छम्मि।
सो उ अगच्छो गच्छो, संजमकामीण मोत्तव्वो।।
जिस गच्छ में सारणा-प्रेरणा और स्मृति कराना और वारणा- रोक-टोक नहीं हैं, वह गच्छ समुदाय होकर भी गच्छ नहीं है। संयम की साधना करने वाले पुरुष के लिए ऐसा गच्छ छोड़ने योग्य है।