श्रमण महावीर

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

श्रमण महावीर

'वह सोचे-क्या परदत्तभोजी श्रमण को गोत्र-मद करने का अधिकार है?'
'वह सोचे-क्या उसे जाति और गोत्र त्राण दे सकते हैं या विद्या और चरित्र ?'२
२. एक निर्ग्रन्थ ने पूछा- 'तो भंते ! हमारा कोई गोत्र नहीं है?'
'सर्वथा नहीं।'
'भंते ! यह कैसे ?'
'तुम्हारा ध्येय क्या है?'
'भंते ! मुक्ति ।'
'वहां तुम्हारा कौन-सा गोत्र होगा?'
'भंते ! वह अगोत्र है।'
'सगोत्र अगोत्र में प्रवेश नहीं पा सकता। इसलिए मैं कहता हूं-तुम अगोत्र हो, गोत्रातीत हो।'
भगवान् ने निर्ग्रन्थों को सम्बोधित कर कहा- 'आर्यों! निर्ग्रन्थ को प्रज्ञा, तप, गोत्र और आजीविका का मद नहीं करना चाहिए। जो इनका मद नहीं करता, वही सब गोत्रों से अतीत होकर अगोत्र-गति (मोक्ष) को प्राप्त होता है।
३. भगवान् के संघ में सब गोत्रों के व्यक्ति थे। सब गोत्रों के व्यक्ति उनके सम्पर्क में आते थे। उस समय नाम और गोत्र से सम्बोधित करने की प्रथा थी। उच्च गोत्र से सम्बोधित होने वालों का अहं जागृत होता। नीच गोत्र से सम्बोधित व्यक्तियों में हीन भावना उत्पन्न होती। अहं और हीनता- ये दोनों विषमता के कीर्ति स्तम्भ हैं। भगवान् को इनका अस्तित्व पसन्द नहीं था। भगवान् ने एक बार निर्ग्रन्थों को बुलाकर कहा, 'आर्यों! मेरी आज्ञा है कि कोई निर्ग्रन्थ किसी को गोत्र से सम्बोधित न करे।'
४. जैसे-जैसे भगवान् का समता का आन्दोलन बल पकड़ता गया, वैसे-वैसे जातीयता के जहरीले दांत काटने को आकुल होते गए। विषमता के रंगमंच पर नए-नए अभिनय शुरू हुए। ईश्वरीय सत्ता की दुहाई से समता के स्वर को क्षीण करने का प्रयत्न होने लगा।
इधर मानवीय सत्ता के समर्थक सभी श्रमण सक्रिय हो गए। भगवान् बुद्ध का स्वर भी पूरी शक्ति से गूंजने लगा। श्रमणों का स्वर विषमता से व्यथित मानस को वर्षा की पहली फुहार जैसा लगा। इसका स्वागत उच्च गोत्रीय लोगों ने भी किया। क्षत्रिय इस आन्दोलन में पहले से ही सम्मिलित थे। ब्राह्मण और वैश्य भी इसमें सम्मिलित होने लगे। यह धर्म का आन्दोलन एक अर्थ में जन आन्दोलन बन गया। इसे व्यापक स्तर पर चलाना भिक्षुओं का काम था। भगवान् बड़ी सतर्कता से उनके संस्कारों को मांजते गए। एक बार कुछ मुनियों में यह चर्चा चली कि मुनि होने पर शरीर नहीं छूटता, तब गोत्र कैसे छूट सकता है? यह बात भगवान् तक पहुंची। तब भगवान् ने मुनि-कुल को बुलाकर कहा, 'आर्यों! तुमने सर्प की केंचुली को देखा है?'
'हां, भंते! देखा है।'
'आर्यों ! तुम जानते हो, उससे क्या होता है?'
'भंते ! केंचुली आने पर सर्प अन्धा हो जाता है।'
'आर्यों! केंचुली के छूट जाने पर क्या होता है?'
'भंते ! वह देखने लग जाता है।'
'आर्यों! यह गोत्र मनुष्य के शरीर पर केंचुली है। इससे मनुष्य अन्धा हो जाता है। इसके छूटने पर ही वह देख सकता है। इसलिए मैं कहता हूं कि सर्प जैसे केंचुली को छोड़ देता है, वैसे ही मुनि गोत्र को छोड़ दे। वह गोत्र का मद न करे। किसी का तिरस्कार न करे।'