संबोधि

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

संबोधि

२०. जीवनस्य तृतीयेऽस्मिन्, भागे प्रायेण देहिनाम्। 
      आयुषो जायते बन्धः, शेषे तृतीयकल्पना।।
जीवों के जीवन के तीसरे भाग āमें नरक आदि आयु में से किसी एक आयु का बंधन होता है। जीवन के तीसरे भाग में आयु का बंधन न हुआ तो फिर तीसरे भाग के तीसरे भाग में आयु का बंधन होता है। उसमें भी बंधन न हुआ हो तो फिर अवशिष्ट के तीसरे भाग में आयु का बंधन होता है। इस प्रकार जो आयु शेष रहती है, उसके तीसरे भाग में आयु का बंधन होता है।
२१. तृतीयो नाम को भागो, नेति विज्ञालुमर्हसि। 
      सर्वदा भव शुद्धात्मा, तेन यास्यसि सद्गतिम्॥
जीवन का तीसरा भाग कौन-सा है, इसे तू जान नहीं सकता। इसलिए सर्वदा अपनी आत्मा को शुद्ध रख, इस प्रकार तू सद्गति को प्राप्त होगा।
जीवन ओस की बूंद की तरह है, कब गिर जाए यह पता नहीं है, इसलिए 'प्रमाद मत करो' यह आत्म-द्रष्टाओं का उद्घोष है। मनुष्य यह बुद्धि से जानता है, किन्तु जागरूक नहीं रहता। जापानी कवि 'ईशा' के संबंध में कहा जाता है-बत्तीस, तेतीस वर्ष की उम्र में उसके परिवार के पांच सदस्य पत्नी, बच्चे मर गए। बड़ा दुःखी हो गया। कहीं शांति नहीं मिली। किसी व्यक्ति ने उसे संत के पास भेज दिया। आया। संत ने कहा- 'आंख खोलकर देखो', 'जीवन ओस की बूंद की तरह है, अब गया, तब गया। सबको जाना है।' शांति मिली। एक कविता लिखी निश्चित ही जीवन एक ओस का कण है। मैं पूर्णतया सहमत हूं कि जीवन एक ओस का कण है। फिर भी यह आशा नहीं छूटती। सब देख लेने, जान लेने के बाद भी आदमी भविष्य की कल्पनाओं में जीने लगता है। वर्तमान को छोड़ देता है। महावीर कहते हैं– गौतम! शांति का सूत्र है– जागरूकतापूर्वक जीना।
जागरूक व्यक्ति प्रमत्त नहीं होता। वह प्रत्येक क्षण शुभ भावना से भावित रहता है। इसलिए उसे मृत्यु का भय नहीं रहता। मृत्यु कभी आए, उसका भविष्य सुरक्षित है। किन्तु जो प्रमत्त हैं, खतरा उन्हीं के लिए है। वे अशुभ भावों से घिरे रहते हैं। वे हिंसा, झूठ, ईर्ष्या, द्वेष, राग, कलह आदि से मुक्त नहीं होते। इन स्थितियों में वर्तमान और भविष्य दोनों सुखद नहीं होते। जैसे भावों में व्यक्ति मरता है वह वैसी ही गति में उत्पन्न होता है।