
रचनाएं
स्वाध्याय प्रेमी साध्वी बिदामां जी
तप के बारह भेद में एक भेद है - स्वाध्याय। स्वाध्याय कर्म-निर्जरा का महान हेतु है। सुदीर्घजीवी शासनश्री साध्वी बिदामांजी भी स्वाध्याय-प्रेमी साध्वी थी।
लगभग 102 वर्ष की उम्र तक दिन में स्वयं पुस्तकें पढ़ती। मुझे साध्वी श्री जी के सान्निध्य में रहते लगभग 13 वर्ष हो गए और इन 13 वर्षों में मैंने अनुभव किया कि स्वाध्याय उनके लिए भोजन और औषध, सबकी पूर्ति कर देता। स्वाध्याय के द्वारा ही वे तृप्ति और स्वस्थता का अनुभव करती थी। मैं अपने आप को सौभाग्यशाली मानती हूं कि मुझे आपको 'मेरा जीवन, मेरा दर्शन’ के 25 भाग और अन्य अनेक पुस्तकों को सुनाने का अवसर मिला।
आहार के बाद प्रतिदिन वे पूछने लग जातीं — 'तू दोपहर में स्वाध्याय सुनाने आएगी ना?' और जब किसी कार्यवश मना करती तो कहतीं — 'थोड़ी देर ही सुना देना, पर आना जरूर।' स्वाध्याय में उन्हें बड़ा ही आनंद मिलता और वे कहतीं — 'तुम जब मुझे कुछ सुनाती हो तो मेरा टाइम अच्छा बीतता है।' कभी दूसरी साध्वियां भी सुनातीं तो भी मुझसे पूछतीं — 'तू क्यों नहीं आई? तुम आ जाया करो, क्योंकि तुम सुनाती हो तो मुझे अच्छा लगता है।'
मुझे उनके जीवन के अंतिम समय तक उन्हें ‘आराधना’ आदि सुनाने का सुंदर अवसर प्राप्त हुआ। अंतिम दिन तक अत्यधिक वेदना होने पर भी समता से स्वाध्याय श्रवण किया। आप मुझ पर असीम वात्सल्य बरसाती रहीं, जो मेरे जीवन के लिए अविस्मरणीय है। मैं आपको कभी भी भूल नहीं सकती। भले ही आप विलीन हो गई हैं, लेकिन भावों में, मेरे स्मृति-पटल पर आप सदैव अमर रहेंगी।
आपकी स्वाध्याय-प्रियता, गुरु-निष्ठा, संघ-निष्ठा, कार्य-निष्ठा और आत्म-निष्ठा आदि आपकी दुर्लभ विशेषताएं मुझमें भी संक्रमित होती रहें। आपकी आत्मा के प्रति आध्यात्मिक मंगलकामना करती हूं — आप अतिशीघ्र मोक्षश्री का वरण करें। स्वाध्याय-प्रिय साधिका को मेरा नमन।