
गुरुवाणी/ केन्द्र
त्याग से करें परिग्रह का परिसीमन : आचार्यश्री महाश्रमण
कोबा स्थित प्रेक्षा विश्व भारती के वीर भिक्षु समवसरण में अध्यात्म जगत के महासूर्य युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम पर आधारित अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि अध्यात्म शास्त्र में अपरिग्रह की बात कही गई है। पदार्थों के बिना जीवन चलाना कठिन है और साधना के लिए त्याग तथा संयम की आवश्यकता होती है। साधु के लिए तो अपरिग्रह महाव्रत है। अकिंचन साधु अपने पास न तो रुपया–पैसा रखता है और न ही एक इंच जमीन का मालिक होता है। यही साधु की अपरिग्रह साधना है। कपड़े, पात्र आदि कुछ धर्मोपकरण रखे जा सकते हैं, पर उनमें भी मोह या आसक्ति नहीं होनी चाहिए। यही साधु का आकिंचन्य है। जो अकिंचन बन जाता है, वही वास्तव में दुनिया का बड़ा व्यक्ति कहलाता है। जिसके पास परिग्रह और ममत्व है, वह भले ही संसार की दृष्टि में अच्छा हो, पर अध्यात्म की दृष्टि से ऊँचा नहीं माना जाता। जब पदार्थ और उसके साथ मूर्च्छा दोनों मिल जाते हैं तो परिग्रह पक्का हो जाता है।
शास्त्रों में कहा गया है कि जो लोग परिग्रह रखते हैं और पदार्थों में मोह व ममत्व रखते हैं, वे परिग्रही कहलाते हैं। परिग्रह के लिए व्यक्ति हिंसा, हत्या, लूटपाट तक कर बैठता है। यदि व्यापार में पारदर्शिता, ईमानदारी और सत्यवादिता हो तो वह भी पवित्रता की श्रेणी में आ सकता है। पर जहाँ लोभ, मोह और मूर्च्छा होती है, वहाँ व्यक्ति झूठ बोल देता है, छल–कपट कर लेता है, चोरी कर लेता है और यहाँ तक कि हत्या तक कर देता है। इस प्रकार परिग्रह हिंसा का कारण बन जाता है। जैसे ‘अहिंसा परमो धर्मः’ कहा जाता है, वैसे ही एक दृष्टि से ‘अपरिग्रहः परमो धर्मः’ भी कहा जा सकता है।
गृहस्थ जीवन में धन रखना आवश्यक होता है, परंतु यह भी देखना चाहिए कि धन अर्जन का साधन शुद्ध है या अशुद्ध। न्याय, नीति और नैतिकता से अर्जित धन ही वास्तविक अर्थ है। अन्याय या अनीति से कमाया गया धन केवल अर्थाभास है। व्यक्ति को अर्थाभास से बचने का प्रयास करना चाहिए। जीवन में प्रामाणिकता और ईमानदारी आ जाए तो वह भी कुछ अंशों में अपरिग्रह की साधना है।
जैन श्रावक के बारह व्रतों में पाँचवाँ व्रत है – इच्छा परिणाम व्रत और सातवाँ व्रत है – भोगोपभोग परिमाण व्रत। धन होने पर भी व्यक्तिगत भोग में संयम रखना चाहिए। पहले धन अर्जन में अनैतिकता न हो – यह इच्छा परिणाम, और फिर धन अर्जन के पश्चात् भोग में संयम रखना तथा अर्जित धन के प्रति मोह व ममत्व को घटाना या समाप्त करना – यह अनासक्ति है।
मंगल प्रवचन के पश्चात् जैन विश्व भारती एवं जैन विश्व भारती संस्थान के तत्वावधान में भारत सरकार द्वारा आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के 105वें जन्मोत्सव पर जारी स्मारक सिक्के का विमोचन सम्पन्न हुआ। कार्यक्रम में जैन विश्व भारती संस्थान के कुलपति बच्छराज दुगड़, जैन विश्व भारती अध्यक्ष अमरचन्द लुंकड़, अल्पसंख्यक आयोग के सदस्य सुनील सिंघी एवं जैन विश्व भारती के पूर्व अध्यक्ष सुरेन्द्र चौरड़िया ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि आचार्यश्री महाप्रज्ञ बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। वे दार्शनिक, चिंतक, साहित्यकार और प्रवचनकार थे, और इन सबके ऊपर एक संत थे। उनमें सृजनशीलता के दर्शन होते हैं। उनकी वक्तृत्व और लेखन कला अनुपम थी। आचार्यवर ने अनेक विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। इस संदर्भ में आशीर्वचन प्रदान करते हुए परम पूज्य गुरुदेव ने कहा कि हमारे जीवन में अनेक प्रकार के मनुष्य होते हैं – कुछ के पास धन का बल होता है, कुछ के पास शरीर की संपदा, कुछ के पास सत्ता का बल और कुछ विद्वत्ता का बल। संत समुदाय में भी अनेक प्रकार के संत हुए हैं। आचार्यश्री महाप्रज्ञ बाल्यावस्था में ही साधु बन गए और मुनि अवस्था से ही विद्वान संत के रूप में प्रतिष्ठित हुए। योग, ध्यान, साहित्य, जैन आगमों का संपादन और अनुवाद–टिप्पणी में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। आचारांग सूत्र पर उन्होंने संस्कृत में भाष्य लिखा।
वे एक विलक्षण आचार्य थे। कार्यक्रम का संचालन जैन विश्व भारती के मंत्री सलिल लोढ़ा ने किया। ज्ञानशाला- मोटेरा- कोटेश्वर आदि क्षेत्रों के ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपनी प्रस्तुति दी। बालिका खुशी गोठी, काम्या व गुर्वी जैन ने अपनी बालसुलभ प्रस्तुति दी। आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह, अणुव्रत गीत महासंगान के बैनर को लोकार्पित किया गया।