
गुरुवाणी/ केन्द्र
साधना के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सूत्र है अनासक्ति का भाव : आचार्यश्री महाश्रमण
तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, ज्योतिपुंज, युग प्रधान आचार्य श्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि जो व्यक्ति आसक्ति में प्रवृत्त होता है, पदार्थों के प्रति राग व मोह का भाव रखता है, वह व्यक्ति बार-बार दुःख को प्राप्त होता है। आसक्ति बंधन का कारण है और आसक्ति से मुक्ति की साधना जीव के मुक्ति का साधन है। साधना के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है कि अनासक्ति का भाव रखो। भोजन करना है तो अनासक्ति का भाव रखो, अमनोज्ञ की ज्यादा निंदा भी नहीं करनी चाहिए। प्रशंसा आदि से बचने का प्रयास करना चाहिए। अमनोज्ञ पदार्थ आ जाए तो उसमें भी समता का भाव रखना चाहिए। जहाँ कहीं भी आसक्ति का भाव आता है, व्यक्ति बंधन के जाल में जकड़ता जाता है।
साधु के जीवन में तो संयम की साधना रहनी ही चाहिए, गृहस्थ जीवन में भी संयम, सादगी व अनासक्ति का अभ्यास करते रहना चाहिए। व्यवसाय आदि में नैतिकता रखो, हिंसा से बचो, नशे से बचो, सांप्रदायिक असहिष्णुता मत करो आदि ये नियम धर्म से जुड़े हुए हैं। अणुव्रत में संयम और नैतिकता की बात होती है। प्रेक्षाध्यान में भी वीतरागता की बात है - न प्रियता, न अप्रियता, न राग, न द्वेष। राग-द्वेष मुक्त रूप से देखना। धर्म और अध्यात्म की साधना राग-द्वेष मुक्ति की साधना है, अनासक्ति की आराधना है। अनासक्ति रहने पर ही इन्द्रियों का संयम रह सकता है। पाँचों इन्द्रियों का संयम रखना बहुत अच्छी साधना है। अनासक्ति में रहते हुए व्यक्ति कभी परम सुख को भी प्राप्त कर सकता है। पावन पाथेय के उपरान्त शांतिदूत आचार्यश्री ने आचार्यश्री तुलसी द्वारा रचित 'तेरापंथ प्रबोध' आख्यानमाला के क्रम को आगे बढ़ाया।
आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में संस्था शिरोमणि जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा द्वारा आयोजित प्रतिनिधि सम्मेलन का मंचीय कार्यक्रम रहा। इस संदर्भ में महासभा अध्यक्ष मनसुख लाल सेठिया ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। उन्होंने महासभा की गतिविधियों की जानकारी देते हुए कहा कि जो भी उपक्रम चल रहे हैं, वे गुरुदेव के आशीर्वाद और मुनि विश्रुतकुमार जी के चिन्तन का परिणाम हैं। उन्होंने समस्त प्रतिनिधियों का आह्वान किया कि वे तेरापंथ समाज के एक-एक परिवार की संभाल कर उन्हें तेरापंथ के उपक्रमों के साथ जोड़ने का प्रयास करें। महासभा के आध्यात्मिक पर्यवेक्षक मुनि विश्रुतकुमार जी ने अपनी भावाभिव्यक्ति देते हुए कहा कि पूज्य कालूगणी के युग में महासभा के रूप में जो शुरुआत हुई थी, वह आज एक वटवृक्ष के रूप में हमारे सामने है।
यह हमारे परम पूज्य आचार्यों का ही कृपा प्रसाद है। वर्तमान में परमपूज्य आचार्यश्री महाश्रमणजी की कृपा और वत्सलता हमें प्राप्त हो रही है। मुख्यमुनि श्री महावीर कुमारजी ने संभागी प्रतिनिधियों को उद्बोधित किया। उन्होंने कहा कि कोई भी समाज तभी टिक सकता है जबकि वह संगठित हो, शक्तिशाली हो। आचार्य भिक्षु ने तेरापंथ धर्मसंघ की स्थापना की और उन्होंने अपनी सूझबूझ की गहराई से धर्म को संगठन के साथ जोड़ा। तत्पश्चात् पूज्य गुरुदेव ने संभागी प्रतिनिधियों को आशीष प्रदान करते हुए कहा कि यह वर्ष परम पूजनीय आचार्यश्री भिक्षु का जन्म त्रिशताब्दी वर्ष है। तेरापंथी सभाएँ तेरापंथ समाज का नेतृत्व करने वाली होती हैं। साधु-साध्वियों, समणियों के प्रवास आदि से लोकल रूप में जुड़ी होती हैं। कहीं उपसभाएँ भी हैं। इनसे क्षेत्रों की सार-संभाल में सुविधा होती है।
तेरापंथी महासभा एक केन्द्रीय संस्था है और केन्द्रीय संस्थाओं में भी ‘संस्था शिरोमणि’ का दर्जा प्राप्त है। सेवा साधक श्रेणी भी महासभा का महत्त्वपूर्ण उपक्रम है। सभाएँ महासभा का अंग हैं। यह सभा प्रतिनिधि सम्मेलन हो रहा है। सभी की अपनी धार्मिक चर्या भी चले। सामायिक का क्रम रहे, खान-पान की शुद्धि रहे, एक अच्छा सदाचार का क्रम रहे और इसके साथ श्रावकत्व भी है तो बहुत अच्छी बात हो सकती है। श्रावक संदेशिका पुस्तक को पढ़ने से बहुत-सी जानकारियां प्राप्त हो सकती हैं। उसे यदा-कदा पढ़ते रहें। सामाजिक दृष्टि से महासभा का बहुत बड़ा दायित्व है। इन वर्षों में महासभा बहुत अच्छी सेवा समाज को प्रदान कर रही है। इसका व्यक्तित्व भी निखार को प्राप्त हुआ है। सभाएं महासभा की अंग हैं। यह सभा प्रतिनिधि सम्मेलन हो रहा है। सभी में धर्म की जागरणा बनी रहे। सभाएं और उपसभाओं से समाज का संगठन मजबूत होता है। सभी अच्छा कार्य करते रहें। इस कार्यक्रम का संचालन महासभा के महामंत्री विनोद बैद ने किया।