
गुरुवाणी/ केन्द्र
अप्रमाद की साधना में करें उत्थान : आचार्यश्री महाश्रमण
जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम अधिशास्ता, महातपस्वी, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि अर्हत् वंदना का पाठोच्चारण करते समय एक सूत्र आता है— “उट्ठिए णो पमायए।” जब आदमी अध्यात्म की आराधना के लिए उठ खड़ा हो जाता है, उसमें प्रस्थान कर देता है, तब बीच में या बाद में प्रमाद नहीं करना चाहिए। अप्रमाद का सूर्य उग गया है, अब प्रमाद का बादल आड़े नहीं आना चाहिए। अप्रमाद की साधना में जो उत्थान करता है, मोहनीय कर्म का बादल अप्रमाद को आवृत करने का प्रयास कर सकता है, पर यदि आदमी जागरूक रहे और बादल को दूर करने का प्रयास करे तो बादल हट जाने पर सूर्य का प्रकाश हमें प्राप्त हो सकता है। जैसे पानी के ऊपर यदि शैवाल न हो तो ऊपर की वस्तु दिखाई दे सकती है।
आयारो में संदेश दिया गया है कि उठ गए हो, अब प्रमाद मत करो। कहीं जाने के लिए जब हम तैयार हो जाते हैं और गति प्रारंभ कर देते हैं तो बीच में आलस्यवश गति को रोकना नहीं चाहिए। चलते रहो। साधना के क्षेत्र और अध्यात्म के जगत में मोहनीय कर्म के उदय और विलय का कई बार संघर्ष चलता है। कहीं आत्मा का पुरुषार्थ बलवान होता है तो वह मोहनीय कर्म को दूर कर देता है, और कहीं मोहनीय कर्म प्रबल होता है तो वह आत्मा की आध्यात्मिकता अथवा उसके तेज को मंद कर सकता है। जीव में कुछ न कुछ प्रकाश तो अल्प रूप में रहता ही है। ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञान को आवृत करता है, परन्तु पूर्णतया आवरण नहीं करता। सूक्ष्म जीवों में भी थोड़ा-थोड़ा प्रकाश रहता है। निगोद के जीवों तथा स्थावर कायिक जीवों में भी ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम रहता ही रहता है।
जैन दर्शन और तेरापंथ दर्शन की दृष्टि से अज्ञान दो प्रकार का होता है। पहला अज्ञान है—ज्ञान का अभाव। दूसरा अज्ञान है—मिथ्या दृष्टि के पास जो बोध चेतना है, वही अज्ञान। दोनों में बड़ा अंतर है। ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जो अज्ञान होता है, वह ज्ञान का अभाव है। दूसरा अज्ञान पात्र के मिथ्या दृष्टि होने के कारण है। उसके पास ज्ञान है, बोध है, फिर भी वह अज्ञान कहलाता है। मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, विभंग अज्ञान—ये ज्ञान के अभाव रूप नहीं हैं, बल्कि ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न अज्ञान हैं। इसी प्रकार मिथ्या दृष्टि भी दो प्रकार की होती है—एक मिथ्यादृष्टि मोहनीय कर्म के उदय से और दूसरी मिथ्यादृष्टि मोहनीय कर्म के क्षयोपशम भाव से। उदय भाव त्याज्य है, जबकि क्षयोपशम भाव मिथ्यादृष्टि का गुणरूप है। मिथ्यात्वी के पास जो सही श्रद्धान है, वह उसका क्षयोपशम भाव है।
शास्त्र में सुंदर संदेश दिया गया है कि उठ गए हो, अब प्रमाद मत करो। जगने के बाद आलस्य न करके अपने आपको सामायिक, स्वाध्याय आदि में नियोजित करना चाहिए। कोई त्याग लेने के बाद प्रमादवश नियम भंग नहीं करना चाहिए, अपितु दृढ़ता से पालन करना चाहिए। पावन पाथेय के पश्चात् आचार्यश्री ने ‘तेरापंथ प्रबोध’ आख्यान को आगे बढ़ाया। मुनि पारसकुमारजी ने आचार्यश्री के श्रीमुख से 52 दिनों की तपस्या का प्रत्याख्यान किया। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ने अपने मंगल उद्बोधन में कहा कि तेरापंथी महासभा एक महनीय संस्था है और पूज्य गुरुदेव ने इसे शिरोमणि संस्था का दर्जा प्रदान किया है। संस्था के सदस्यों की सकारात्मक सोच, उसकी रचनात्मक प्रवृत्तियों तथा समाजहित के चिंतन के कारण ही यह संस्था अपनी स्थापना के एक सौ वर्षों बाद भी ऊर्जावान बनी हुई है।
आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में ‘संस्था शिरोमणि’ जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा द्वारा आयोजित त्रिदिवसीय तेरापंथी सभा प्रतिनिधि सम्मेलन के मध्य दिन पुरस्कार एवं सम्मान अर्पण समारोह का आयोजन किया गया, जिसमें भीखमचंद पुगलिया (कोलकाता) को तेरापंथ संघ सेवा सम्मान व सीए सोहनराज चौपड़ा (अहमदाबाद) को आचार्य तुलसी समाज सेवा पुरस्कार प्रदान किया गया। इस संदर्भ में महासभा के अध्यक्ष मनसुखलाल सेठिया ने अपनी अभिव्यक्ति दी। प्रशस्ति पत्र का वाचन महासभा के उपाध्यक्ष विजय चौपड़ा तथा फूलचन्द छत्रावत ने किया। पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं ने आचार्यश्री के समक्ष अपनी भावाभिव्यक्ति दी। सोहनराज चौपड़ा की ओर से उनकी धर्मपत्नी ने अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं को मंगल आशीर्वाद प्रदान किया। इस उपक्रम का संचालन महासभा के उपाध्यक्ष संजय खटेड़ ने किया।