स्वयं को ही भोगना होता है अपना कर्म : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 15 अगस्त, 2025

स्वयं को ही भोगना होता है अपना कर्म : आचार्यश्री महाश्रमण

महायोगी युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से पावन संबोध प्रदान करते हुए फरमाया कि प्राणी सुख भी भोगता है और दुःख का अनुभव भी करता है। जो भी सुख-दुःख होता है, वह अपना-अपना होता है। अपने किए हुए कर्म प्राणी को स्वयं ही भोगना होता है। दूसरे उस कर्म को सहभागी बनकर नहीं भोगते। सहयोग मौके पर कर भी दें तो वह ऊपरी तौर पर होता है। आखिर अपना कर्म स्वयं को ही भोगना होता है। दूसरा कोई कष्ट देता है यह एक निमित्त की बात है। कई बार ऐसी आशंका भी हो जाती है कि उसने मेरा बिगाड़ कर दिया, तंत्र-मंत्र से व्यापार आदि में बाधा पहुँचा दी। यह बात स्थूल दृष्टि से ठीक हो सकती है, परन्तु यदि हम सूक्ष्म दृष्टि में जाएँ, निश्चय की दृष्टि से सोचें और जैनिज़्म के कर्मवाद के अनुसार विचार करें तो दूसरा निमित्त भले ही बन जाए, परन्तु आदमी के स्वयं के कर्म ही उसे दुःख देते हैं। इसलिए शास्त्र की वाणी है कि यह जानकर कि सुख और दुःख अपना-अपना होता है, मैं पाप न करूँ, प्रमाद में न जाऊँ, ताकि मुझे भविष्य में दुःख के दिन देखने न पड़ें।
प्राणी जो कुछ करता है उसका पूरा हिसाब रहता है और उसका फल प्राणी को भोगना पड़ता है, चाहे किसी भी जन्म में भोगना पड़े। इस जन्म में कोई ऐसा कार्य न भी किया हो तो पिछले जन्म में किए हुए कर्म अपना फल दे सकते हैं। भगवान महावीर के पूर्व जन्मों को देखें तो उन्हें भी अपने कर्म भोगने पड़े। त्रिपृष्ट वासुदेव बनने के बावजूद भी उन्हें अगले भव में सातवीं नरक में जाना पड़ा। आदमी की आत्मा यदि कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाए और सिद्धत्व को प्राप्त कर ले तो दुःखों से पूर्णतया मुक्ति मिल जाती है। वर्तमान जीवन में भी यदि कषायों को प्रतनु बना दें तो आत्मा बड़ी सुखी हो सकती है। हमारी आत्मा मोहनीय कर्म के सदस्यों जैसे क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष आदि से जकड़ी हुई है। ये आत्मा को कहाँ से कहाँ धकेल देते हैं। आदमी हिंसा, अपराध में चला जाता है। न चाहते हुए भी ऐसे कामों में प्रवृत्त होने का कारण भी राग-द्वेष के भाव हैं।
मानव जन्म मिलना और धार्मिक संस्कार मिलना बड़ी बात है। कई मानव बन गए पर वे धर्म-कर्म नहीं जानते, हिंसा आदि में रहते हैं। वे इस मानव जीवन में भी पाप-कर्म करके अधोगति में जा सकते हैं। जिसे यह जन्म अच्छे कुल में मिले, धर्म के संस्कार मिलें, साधु-संतों का योग मिले और वह आदमी धार्मिक बन जाए, तो यह जीवन की एक बड़ी उपलब्धि होती है। छोटी उम्र में साधुत्व आ जाना और अंतिम समय तक अखण्ड साधुपन पालना बहुत अच्छी उपलब्धि है। जीवन में यदि कभी निंदा, विरोध आदि हो जाए तो इनको लेकर न तो दिमाग में तनाव लाना चाहिए, न बैर-विरोध में पड़ना चाहिए और न ही अनावश्यक जवाब देना चाहिए। अच्छा काम करते रहें, दूसरों का भी कल्याण हो—यह भावना और प्रयास होना चाहिए।
आज स्वतंत्रता दिवस है, यह भारत के लिए बहुत गौरवशाली दिन है। आचार्य तुलसी के आचार्यकाल में भारत को आज़ादी मिली थी। आचार्य तुलसी ने अणुव्रत-आंदोलन चलाया था। आज़ादी के साथ देश में नैतिकता, अहिंसा, ईमानदारी के संस्कार रहें और साम्प्रदायिक सहिष्णुता बनी रहे। स्वतंत्र तो हों पर स्वच्छंद न बनें। भारत में अभी लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था है। इसमें अनुशासन और कर्त्तव्यनिष्ठा का होना आवश्यक है। भारत का भौतिक, आर्थिक विकास भी हो, साथ ही आध्यात्मिकता का भी विकास हो। शिक्षा का अच्छा विकास हो, अच्छे संस्कारों का विकास हो, हमारे आचार-विचार अच्छे रहें, मैत्री भाव रहे और सांप्रदायिक उन्माद न रहे। तेरापंथी सभा प्रतिनिधि सम्मेलन के अंतिम दिन गुरुदेव ने महासभा व सभाओं से धर्मसंघ से जुड़ी मर्यादाओं के प्रति यथोचित निष्ठा और जागरूकता रखने हेतु कहा। मर्यादाओं का मान-सम्मान रखें, विधान के प्रति जागरूक रहें और अनावश्यक उल्लंघन न हो। पर्युषण में अच्छी धार्मिक आराधना चले और धर्म की प्रभावना होती रहे। मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ने ‘तेरापंथ प्रबोध’ के आख्यान क्रम को आगे बढ़ाया। तत्पश्चात साध्वीवर्या साध्वी सम्बुद्धयशाजी ने समुपस्थित संभागी प्रतिनिधियों एवं श्रद्धालुओं को उद्बोधित किया। महासभा के अध्यक्ष मनसुखलाल सेठिया ने ‘आचार्यश्री महाश्रमण इंटरनेशनल स्कूल’ आदि के संदर्भ में अपनी प्रस्तुति दी। आचार्यश्री की सन्निधि में स्कूल से संबंधित एक डॉक्यूमेंट्री भी प्रदर्शित की गई। अहमदाबाद ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपनी भावपूर्ण प्रस्तुति दी तथा तदुपरान्त तेरापंथ किशोर मण्डल-अहमदाबाद ने भी अपनी प्रस्तुति दी।