मोह विलय करना ही रहे साधना का लक्ष्य : आचार्य श्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 12 अगस्त, 2025

मोह विलय करना ही रहे साधना का लक्ष्य : आचार्य श्री महाश्रमण

जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्म संघ के देदीप्यमान महासूर्य युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘वीर भिक्षु समवसरण’ में आयारो आगम के माध्यम से पावन संबोध प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारी दुनिया में जन्म भी होता है, मृत्यु भी होती है, बुढ़ापा आता है, बीमारियां भी आती हैं। प्रश्न हो सकता है कि इन स्थितियों को प्राणी क्यों प्राप्त होता है? शास्त्र में उत्तर प्रदान करते हुए कहा गया है कि जन्म-मृत्यु, बुढ़ापा और बीमारी की स्थिति आने का कारण मोह है। मोह आत्मा के साथ जुड़ जाता है तो आत्मा शरीर में आती है और शरीर में आने के लिए उसे जन्म भी लेना पड़ता है, फिर बुढ़ापा, बीमारी और फिर कभी मृत्यु को भी प्राप्त होती है। मोह का परिवार बहुत बड़ा है। इसके कुल 28 सदस्य बताए गए हैं। मोह चेतना को मूढ़ (विकृत) बनाने वाला होता है। प्रकृति में रहने वाली आत्मा को विकृति में ले जाने वाला मोहनीय कर्म ही होता है। अहंकार, ममता, गुस्सा आदि सभी मोहनीय कर्म के प्रभाव के कारण होते हैं। इन व्यवहारों से आत्मा के मोहनीय कर्म का बंध होता रहता है। बंध जब उदय में आता है तो जीव एक योनि से दूसरी योनि में अथवा एक ही योनि में बार-बार जन्म-मरण करता रहता है।
आत्मा को शाश्वत कहा गया है, परन्तु आत्मा का पर्याय परिवर्तन होता रहता है। आज जो मनुष्य हैं, वे अतीत में देवता के रूप में, कोई नारक, कोई तिर्यंच, तो कोई मनुष्य से ही मनुष्य बना है। इस प्रकार मोह के कारण ही जन्म-मरण की प्राप्ति होती रहती है। जन्म-मरण को दुःख बताया गया है। इसके साथ बुढ़ापा और बीमारी भी दुःख बताए गए हैं। जीवन मिला है तो उसे कैसे जीना है, इसका ध्यान रखने का प्रयास करना चाहिए। व्यक्ति को अपने जीवन को अच्छा बनाने का प्रयास करना चाहिए। जीवन को अच्छा बनाने के लिए व्यक्ति को मोह को कम करने का प्रयास करना चाहिए। लोभ को भी जहाँ तक संभव हो सके, कम करने का प्रयास होना चाहिए। इन सभी को कम करते-करते ये हमेशा के लिए समाप्त हो जाएं तो फिर आत्मा का कल्याण हो जाएगा और जीव जन्म-मरण की प्रक्रिया से मुक्त भी हो सकता है।
अध्यात्म की साधना मुख्यतया मोह को क्षीण करने की साधना होती है। साधना करते-करते कभी चौदहवां गुणस्थान प्राप्त हो जाए और संपूर्ण संवर की स्थिति बन जाए तो फिर मोक्षश्री का वरण हो ही जाता है। इसलिए मोह को ही पुनर्जन्म का आधारभूत तत्त्व कहा जाता है। जैन दर्शन पुनर्जन्मवाद को मानने वाला है। पुनर्जन्म, पाप-पुण्य, मोक्ष आदि न हों तो फिर अध्यात्म की सार्थकता ही सिद्ध नहीं हो सकती। इसलिए जन्म-मरण से मुक्ति के लिए व्यक्ति को धर्म-अध्यात्म की साधना करने का प्रयास करना चाहिए। आचार्यश्री ने मंगल प्रवचन के उपरान्त तेरापंथ प्रबोध के आख्यान से सभी को लाभान्वित किया। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त साध्वीवर्याजी ने उपस्थित जनता को उद्बोधित किया। आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में अनेकानेक तपस्वियों ने अपनी-अपनी तपस्या का श्रीमुख से प्रत्याख्यान किया। तेरापंथी सभा (अहमदाबाद) के चिकित्सा सहप्रभारी राकेश सिपाणी ने चिकित्सा संबंधी अपनी अभिव्यक्ति दी। पंजाब से संघबद्ध रूप में पहुंचे श्रद्धालुओं ने आचार्यश्री के समक्ष उपस्थित होकर अपनी अर्ज रखी।