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सुदीर्घजीवी शासनश्री बिदामां जी की जीवन गाथा
सुदीर्घजीवी शासनश्री बिदामां जी का जन्म वि. सं. 1975 कार्तिक कृष्णा चतुर्थी मेवाड़ सरेवड़ी में हुआ। स्वर्गीय श्री विरधीचंद जी चावत की धर्मपत्नी श्रीमती हंज्जा बाई की रत्नकुक्षि को आपने धन्य बना दिया। मात्र चौदह वर्षों की उम्र में छापली/पींपली निवासी श्री ज्ञानचंदजी दक के सुपुत्र श्री पेमराजजी दक के साथ आपका पाणिग्रहण हुआ। शादी के छह मास पूर्ण होते ही आपके सुहाग का सिंदूर मिट गया। बसंत से पूर्व ही पतझड़ छा गया। चौदह वर्षीय बिदाम का जीवन फूल खिलने से पहले ही मुरझा गया।
आप एक पुण्यशाली आत्मा थीं। भयंकर रूढ़ियों के युग में भी रूढ़िवाद की जकड़न आपका स्पर्श नहीं कर सकी। आपके बड़े जेठ श्री चंदनमलजी दक (तहसीलदार) ने उस युग में पारिवारिक जनों से कहा - इसे कोई कुछ नहीं कहेगा कि काले वस्त्र पहनो, गहने उतारो। यह तो दुधमुंही बच्ची है। इसने क्या देखा है। समझ पकड़ेगी तब सब कुछ हो जाएगा। चंदनमल जी एवं उनकी धर्मपत्नी दोनों ने आपको सदैव अपने बच्चों की तरह रखा। वैधव्य के पश्चात भी आप ससुराल में ही रहीं। बीच-बीच में पीहर आना-जाना रहता था।
अष्टमाचार्य कालूगणी ग्रामानुग्राम विहार करवाते हुए मेवाड़ प्रांत में पधारे। क्षेत्र स्पर्शना के क्रम में पूज्य प्रवर का पींपली ग्राम में पदार्पण हुआ। शय्यातर का लाभ चंदनमलजी को प्राप्त हुआ। पारिवारिक परिचय के सिलसिले में चंदनमलजी ने गुरुदेव को निवेदन किया - ये मेरे छोटे भाई पेमराज की बहू है। भाई पेमराज शादी के छह महीने होते ही महामारी की चपेट में आ गया। गुरुदेव ने फरमाया - बाई! तुम्हारी अवस्था बहुत छोटी है। घर में रहना ठीक नहीं है। दीक्षा ले लो, निहाल हो जाओगी। तुम्हारे जीवन का कल्याण हो जाएगा। अनित्यता का दिशा-बोध दिया। पूज्य प्रवर की भववेधक कल्याणी पावन प्रेरणा पाकर आपका मन वैराग्य रस से आप्लावित हो गया। पूरी रात चिंतन में डुबकियां लगाती रहीं। आखिर दृढ़ निर्णय पर पहुँच गईं - "मुझे दीक्षा लेना है।" पर अनपढ़ता का रोड़ा मन में उथल-पुथल मचाने लगा - मुझे दीक्षा कैसे मिलेगी? मैं तो अनपढ़ हूँ। आखिर समाधान खोज लिया। जेठूती भंवरीबाई को अपने साथ दीक्षा हित तैयार कर लिया।
साधु-साध्वियों का योग मिला। कण्ठस्थ ज्ञान प्रारंभ कर दिया। कुशाग्र बुद्धि एवं तीव्र मेधा शक्ति से थोड़े समय में ही कई थोकड़े व प्रारंभिक ज्ञान कण्ठस्थ कर लिया। जब बालिका भंवरी 10 वर्षों की हुई तब अपनी भावना को जेठानी के सामने रखा। काकी-जेठूती को परीक्षा की कसौटी पर उत्तीर्ण पाकर चंदनमलजी ने गुरूदेव श्री तुलसी के चरणों में अर्ज निवेदन किया। अनुज्ञा प्राप्त कर हर्षसागर में डूब गए। वि. सं. 1998 कार्तिक कृष्णा 9 को राजलदेसर में आचार्य श्री तुलसी के चरणकमलों में संयमश्री का वरण किया। साध्वीप्रमुखा श्री झमकूजी के चरणकमलों में संयम यात्रा का शुभारंभ हुआ। मर्यादोत्सव के अवसर पर साध्वी बिदामां जी एवं साध्वी भीखां जी (काकी-जेठूती) दोनों को साध्वी श्री बख्तावरजी को वंदना करवायी।
चातुर्मास परिसमाप्ति के पश्चात शेषकाल में साध्वी श्री बख्तावरजी मारवाड़ जंक्शन में विराज रहे थे। वहां अचानक ही आपका शरीर व्याधिग्रस्त हो गया। पेशाब एवं दस्त दोनों ही मार्ग अवरुद्ध हो गए। एक-एक कर छह दिन बीत गए। न पेशाब लगा, न ही दस्त। पेट में आफरा आ गया। भयंकर उदर पीड़ा होने लगी। खाने-पीने में केवल छाछ और राब का प्रयोग चलता था। विषम कष्टमय स्थिति में भी औषध प्रयोग नहीं किया। मन ही मन "ऊँ भिक्षु" का जप चलता रहा। सातवें दिन बिगड़ती हुई स्थिति एवं छटपटाहट को देखकर साध्वी श्री बख्तावरजी ने तपसण भूरांजी को फरमाया - भूरांजी, गोचरी में सोनायपति की गवेषणा कर लाना। आज्ञा मिलते ही तपसण सोनायपति ले आए। पीस-छानकर एक टोपसी में डालकर पूछा - कैसे देनी है? साध्वी श्री ने फरमाया - गर्म पानी में घोलकर पिला देना। तपसण भूरांजी ने टोपसी (प्याला) ढककर आपके पास रखते हुए कहा - बिदामां, यह टोपसी पड़ी है, मैं गर्म पानी लेकर आ रही हूँ। कुछ समय पश्चात तपसण गर्म पानी लेकर आपके पास पहुंची। टोपसी को जैसे ही उठाया और देखा तो वे दंग रह गईं। तपसण ने प्रश्नायित नयनों से पूछा - बिदामां जी, क्या यहां कोई आया था? आपने कहा - मैंने तो किसी को नहीं देखा। तपसण का दूसरा प्रश्न था - यह टोपसी खाली पड़ी है, चूर्ण कहां गया? आपने कहा - मुझे पता नहीं। मैं तो उठी भी नहीं। तपसण टोपसी को लेकर साध्वी श्री के पास पहुँची और पूरी बात बताई। टोपसी (प्याला) इतना स्वच्छ थी जैसे किसी ने धो-पोंछकर रखी हो। देखने वाली सभी साध्वियां दंग थीं। आखिर फाकी कहां गई? साध्वी श्री बख्तावरजी आपके पास पधारीं। धैर्य बंधाते हुए फरमाया - बिदामां जी, मुझे लगता है कोई अदृश्य शक्ति तुम्हारी परीक्षा एवं सेवा कर रही है। घबराओ मत। फाकी क्या उड़ी है, समझो बीमारी ही चली गई। अग्रगण्या के वचनों को श्रद्धा से शिरोधार्य करते हुए आपने फरमाया - आपकी कृपा से सब ठीक हो जाएगा।
रात्रि के समय असह्य पीड़ा भारी बेचैनी में बीती। ब्रह्ममुहूर्त का समय घोर कष्टमय था। सूर्योदय में थोड़ा ही समय बाकी था। आपके पेट में कलकलाहट-घड़घड़ाहट शुरू हो गई। तपसण ने हाथ का सहारा दिया। धीरे-धीरे उठाया और बाहर ले गईं। प्रासुक एकांत स्थान देखकर नीचे बैठाया। थोड़ी देर पश्चात पेशाब की बूंदें लगने लगीं। देखते ही देखते पेशाब के साथ ही मलद्वार भी खुल गया। 4-5 दिनों में पेट का आफरा उतरने लगा। खाने में मुलायम धान एवं तरल पदार्थ ही दिए जाते। पेट में जमा कचरे की सफाई होने लगी। पंद्रह दिनों में स्वास्थ्य सामान्य हो गया। स्वास्थ्य लाभ के पश्चात एक दिन अवसर देखकर आपने साध्वी श्री से निवेदन किया - मुझे यावज्जीवन ऐलोपैथिक आदि दवाइयों का प्रत्याख्यान करवा दो। साध्वी श्री ने फरमाया - अभी तुम्हारी अवस्था छोटी है। न तो जिंदगी का कोई भरोसा है और न ही शरीर का। अतः अभी त्याग नहीं करना चाहिए। कुछ दिनों बाद पुनः निवेदन किया। आपके आग्रह एवं दृढ़ संकल्प निष्ठा को देखकर साध्वी श्री बख्तावरजी ने प्रत्याख्यान करवा दिए। तब से उस संकल्प को अन्तिम क्षण तक निभाया। आपके जीवन में परीक्षा के अनेक अवसर आए। अनेक बार आप मरणासन्न स्थितियों से गुजरीं, पर हर परीक्षण की कसौटी पर खरी उतरती गईं। हर बीमारी से चमत्कारिक ढंग से मुक्ति पाई। 35 वर्षों से आप और मैं एक ही ग्रुप में साधना रत हैं। मैंने आपको निकटता से देखा। कालू स्थिरवास के मध्य कोरोना काल चल रहा था। वेदनीय कर्म का विशेष उदयभाव हुआ। आपको तेज बुखार आया। टाइफाइड घोषित हो गया। लगभग 2 महीनों तक बुखार चलता रहा। भयंकर बेचैनी की स्थिति रहती। कभी-कभी तो ऐसा लगता - सुबह हुई है, शाम होगी या नहीं? शाम हुई है, सुबह होगी या नहीं? कमजोरी के कारण उठने-बैठने की शक्ति भी नहीं रही। अन्न प्रायः नहीं के बराबर चलता था। दिन-रात में कई बार कहते - "महाराज, मेरी नाड़ी देखो। आपको कुछ लगे तो संथारा करवा दो। मुझे खाली मत जाने देना।" नब्ज को देखकर साध्वी श्री उज्ज्वलरेखा जी धैर्य बंधाते हुए फरमातीं - आप चिंता मत करो। ठीक हो जाओगे। अवसर आने पर संथारा करवाने का भाव है।
उठाओ-उठाओ बोलते और एक झटके से उठ जाते। कभी दक्षिण में सिर तो कभी उत्तर दिशा में कर लेते। उठने-बैठने की सैकड़ों आवृतियां हो जातीं। भयंकर बेचैनी और छटपटाहट रहती थी। देखने वालों के मन में भी घबराहट हो जाती। ऐसी स्थिति में भी महीने में निर्धारित तिथियों के 5 उपवास नहीं छोड़ते। वे यथावत चलते थे। चौबीस ही घंटे एक साध्वी आपके पास रहती थी। एक दिन आपके मुँह से सहसा निकला - "मुझे कम्मघणमुक्कं वाला जाप सुनाओ।" तत्पश्चात रात्री के साढ़े ग्यारह बजे तक "उपसर्गस्तोत्र" का जप चलता था। इसके पश्चात "ॐ अ. भी. रा. शि. को. नमः" इस मंत्र का जप चलता रहता। "विघ्नहरण गीत" का श्रवण करते-करते ही उनको नींद आ जाती थी।
एक दिन रात्रि को ब्रह्ममुहूर्त में आप अर्द्धनिद्रा अवस्था में सो रहे थे। अचानक ही आपकी आंख खुली। आपने देखा दरवाजे के मध्य बाहर एक लाल वस्त्रधारी बहिन खड़ी है। नख से शिख तक उसका पूरा शरीर ढका हुआ है। वह बोली - मत्थेएण वंदामि। तब आपने पूछा - "कुण हो बाई?" उत्तर मिला - "मैं हूँ महाराज।" आपका दूसरा प्रश्न था - "कहां से आयी हो?" उत्तर में वह बोली - "सांगावास से आयी हूँ।" थोड़ी देर वहां खड़ी-खड़ी बुदबुदाती रही। तत्पश्चात आपके पट्ट के पास आकर खड़ी हो गई और मंत्र पाठ (जप) करने लगी। आवाज बहुत धीमी थी। मंत्रोच्चारण करते-करते वह बहिन कब, किधर, कहाँ चली गई, यह आपको पता नहीं चल पाया। इसके पश्चात थोड़ी देर में ही आप योग निद्रा में चले गए।
प्रातः प्रतिक्रमण के पश्चात आपने यह घटना साध्वी श्री उज्ज्वलरेखा जी एवं मुझे बताई। साध्वी श्री ने फरमाया - "लगता है महाराज, अब आप स्वस्थ हो जाओगे।" उसी दिन से आपकी बेचैनी में सुधार शुरू हो गया। धीरे-धीरे आप पुनः स्वस्थ हो गईं।
आप कई बार मरणासन्न स्थितियों से गुजरी थीं, पर दृढ़ संकल्प निष्ठा एवं स्वामी जी के प्रति अगाध आस्था बल से आपने घोर भयंकर अनेक घाटियों को पार कर नया जीवन पाया था। तपबल, जपबल एवं स्वाध्यायबल की अनूठी शक्ति से आपकी आत्मा परिपुष्ट थी। "ऊॅं भिक्षु" नाम आपके जीवन के कण-कण में रमा हुआ था। एक अनुपम औषध, जिसके आसेवन से ही आप शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक हर व्याधि-आधि से मुक्त हो गईं। सेवा भावना आपके जीवन का अभिन्न अंग था। आपने अपने जीवन में 7 वर्षीय सेवाएं सेवाकेन्द्रों में अहोभाव से की हैं। सहनशीलता, सेवाभावना, मिलनसारिता आपके जीवन के विशिष्ट गुण थे। ग्रुप में आने वाली साध्वियों में सद्संस्कारों का बीजारोपण करना तथा उन्हें वत्सलता से परोटने की अद्भुत कला आप में थी। मुझे लगभग 35 वर्षों तक आपका आत्मीय साहचर्य प्राप्त हुआ। मेरे जीवन निर्माण एवं आध्यात्मिक विकास में आपकी अहम भूमिका रही है। आपके अविस्मरणीय सहयोग एवं प्रेरणा से मैं कभी उऋण नहीं हो सकती। लगभग 25 वर्षों तक मेरे वस्त्रों की सिलाई एवं रजोहरण प्रतिलेखन आपने स्वेच्छा से किया था। चाहे नए वस्त्रों की हो या पुराने वस्त्रों की। मेरे हाथ में सुई देखते ही तत्काल ले लेतीं - "छोड़ो, यह काम तो मैं ही कर लूंगी। तुम अध्ययन एवं जनोपकार करो।" साध्वी श्री उज्ज्वलरेखा जी की सिलाई एवं रजोहरण प्रतिलेखन कार्य भी वर्षों तक किया। आपकी निर्जरा भावना एवं सेवा भावना अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद है। साध्वी श्री बख्तावर जी, आनंदकुमारी जी एवं उनकी माताजी साध्वी श्री सुजानां जी की अनूठी सेवा कर उन्हें समाधि पहुँचायी। सेवाकेन्द्र लाडनूं में 7 अनशन हुए। उनकी सेवा में अहोरात्र तत्पर रहती थीं। "करो सेवा, पावो मेवा" इस उक्ति का साकार रूप हमने आपके जीवन में देखा। साध्वी अमृतप्रभाजी, साध्वी स्मितप्रभाजी, साध्वी हेमप्रभाजी एवं साध्वी नम्रप्रभा जी ने आपकी अहोभाव से सेवा करके साता-समाधि पहुँचायी है।
आपका जीवन आचार निष्ठा, मर्यादानिष्ठा, संघनिष्ठा, गुरुनिष्ठा एवं आज्ञानिष्ठा - इस निष्ठा पंचक से संपृक्त था। ऐसी निर्मल, पवित्र एवं पापभीरू आत्मा के आदर्श रूप को हम कभी नहीं भूल सकते। हे जीवन निर्मात्री पथ प्रदर्शिका मां, आपके भावी जीवन विकास की आध्यात्मिक मंगलकामनाएं।