
गुरुवाणी/ केन्द्र
स्वाध्याय से बड़ा गुरु नहीं : आचार्यश्री महाश्रमण
महावीर के महापथिक युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पर्युषण पर्व के द्वितीय दिवस आर्हत् वाङ्मय पर आधारित अपनी मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि जैन दर्शन में आत्मवाद एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है, जहां आत्मा को शाश्वत माना गया है। हर प्राणी की आत्मा, सिद्ध भगवान सहित, अतीत में थी, वर्तमान में है और हमेशा बनी रहेगी। कभी भी आत्मा का विनाश नहीं होता है।
आत्मवाद के सिद्धांत से ही जुड़ा हुआ दूसरा सिद्धांत है कर्मवाद। सिद्धों के सिवाय जो आत्माएं हैं, वे सकर्म होती हैं। सिद्धों की आत्माएं कर्ममुक्त होती हैं, विशुद्ध होती हैं, जबकि संसारी आत्माएं, यहां तक कि चौदहवें गुणस्थान तक के जीवों की आत्माएं भी सकर्मा होती हैं। जैनिज्म का एक तीसरा सिद्धांत है लोकवाद। लोक वह है जहां छः द्रव्य उपलब्ध होते हैं।
इन तीन सिद्धांतों के अलावा यदि आत्मा और कर्म है तो एक सिद्धांत पुनर्जन्मवाद बन जाता है, जिससे स्वर्ग-नरक जैसी चीजें जुड़ी हुई हैं। पर्युषण पर्व के दौरान हम परम आराध्य, परम वंदनीय भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा का भी वर्णन करते हैं। प्रभु की आत्मा ने अनंत-अनंत जीवन-मरण किए थे। भगवान महावीर की आत्मा ने जिस भव में सम्यक्त्व प्राप्त किया, वहां से सत्ताईस भवों का वर्णन किया जाता है।
जैन भूगोल के अनुसार भरत क्षेत्र, ऐरावत क्षेत्र और महाविदेह क्षेत्र हैं। महाविदेह क्षेत्र में अभी भी तीर्थंकर विद्यमान हैं। कोई ऐसा समय नहीं आता जब महाविदेह क्षेत्र में तीर्थंकर विद्यमान न हों। महाविदेह में कम से कम 20 तीर्थंकर तो रहते ही हैं और अधिकतम 160 तीर्थंकर हो सकते हैं। उसी समय 5 भरत और 5 ऐरावत में भी यदि तीर्थंकर हों तो एक समय में 170 तीर्थंकर हो सकते हैं। भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा के अंतर्गत पूज्य श्री ने नयसार भव का सुन्दर विवेचन किया।पर्युषण पर्व के द्वितीय दिवस स्वाध्याय दिवस पर प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए आचार्य प्रवर ने कहा कि स्वाध्याय हमारे लिए खुराक है। अतः जितना संभव हो सके, नियमित रूप से स्वाध्याय करने का प्रयास करना चाहिए। वर्तमान में अनेक आगम उपलब्ध हैं, उनका नियमित रूप से स्वाध्याय होना चाहिए। स्वाध्याय करने से शुभ योगों का प्रवर्तन हो सकता है, मार्गदर्शन मिल सकता है। कंठस्थ ज्ञान का पुनरावर्तन भी करते रहना चाहिए। मानव जीवन मिला है तो स्वाध्याय करते रहने का प्रयास करना चाहिए।
साध्वीवर्याजी ने क्षांति धर्म पर गीत के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति दी। मुख्यमुनि प्रवर ने क्षांति, मुक्ति आदि दस धर्मों की विवेचना प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि क्षमा हमारी आत्मा का स्वभाव है। क्रोध आदि की अनुपलब्धता से आत्मा की जो स्थिति बनती है, उसे धर्म कहा जाता है। क्रोध आत्मा का विभाव है जो अनादि-अनंत काल से हमारे साथ चल रहा है। क्रोध हमारे विवेक को समाप्त कर देता है। उत्तम क्षमा की स्थिति तभी बनती है जब व्यक्ति निमित्तों की प्रतिकूलता में भी क्रोधित न हो। साध्वीप्रमुखाश्री जी ने स्वाध्याय दिवस पर उद्बोधन प्रदान करते हुए कहा कि जीवन में ज्ञान हमारा पथप्रदर्शक होता है। जो व्यक्ति स्वाध्याय में तत्पर रहता है, वह व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त करता है। स्वाध्याय आंतरिक तपस्या का एक प्रकार है। हम पुस्तकों का स्वाध्याय करें और स्वाध्याय करके ज्ञानामृत का पान करें। साध्वी मैत्रीयशाजी व साध्वी ख्यातयशाजी ने स्वाध्याय दिवस के संदर्भ में गीत का संगान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।