उत्कृष्ट आराधना का दिन है भगवती संवत्सरी का दिन : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 27 अगस्त, 2025

उत्कृष्ट आराधना का दिन है भगवती संवत्सरी का दिन : आचार्यश्री महाश्रमण

पर्युषण पर्व के शिखर दिवस ‘भगवती संवत्सरी’ महापर्व पर जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान शिखर पुरुष, अध्यात्मवेत्ता, महातपस्वी युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण ने पर्युषण महापर्व पर प्रारंभ किए गए प्रसंग ‘महावीर की अध्यात्म यात्रा’ के क्रम को आगे बढ़ाते हुए कहा कि जैन आम्नाय की दो परंपराएं हैं - दिगंबर और श्वेतांबर। इनमें जैन श्वेतांबर परंपरा में संवत्सरी भाद्रव शुक्ला चतुर्थी अथवा पंचमी को आयोजित होती है। आज भगवती संवत्सरी की आराधना का दिन है। एक वर्ष में अनेक पर्व विभिन्न तिथियों को आते हैं परन्तु भगवती संवत्सरी के दिन के अलावा आध्यात्मिक आराधना की दृष्टि से हमारी परंपरा में इससे बड़ा पूरे वर्ष में कोई दिन नहीं है। भगवती संवत्सरी की पृष्ठभूमि के रूप में पूर्व के सात दिनों में आराधना हो जाती है और आज का दिन उत्कृष्ट आराधना का दिन होता है। आज का दिन क्षमा पर्व, मैत्री पर्व के रूप में भी है, आज के दिन चौरासी लाख जीव योनियों से खमतखामणा होता है, परस्पर भी खमतखामणा सैद्धांतिक रूप में होता है और व्यावहारिक खमतखामणा कल और उसके बाद भी होता रहता है। आज का दिन साधु-साध्वियों के लिए गोचरी-पानी से मुक्त दिन होता है। यह उपवास और तपस्या का दिन है। गृहस्थ भी आज के दिन उपवास और उपवास के साथ पौषध करते हैं। यह वर्ष में एक दिन ऐसा है, जो श्रद्धेय बन गया है। यह आत्मचिंतन का भी दिन है। पूज्यवर ने संवत्सरी से संबद्ध गीतों का संगान किया। जैन धर्म में अहिंसा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा कि छोटी-छोटी बातों जैसे हरियाली पर नहीं चलना, वर्षा में गोचरी नहीं जाना, स्थावर काय के जीवों की हिंसा से बचने का विधि विधान है। साधु के पांच महाव्रत और छठे रात्रि भोजन-पानी विरमण का कड़ाई से पालन करने का प्रावधान है। श्रावक-श्राविकाएं भी धर्म से जुड़े हुए हैं, बच्चों और युवकों में धर्म के संस्कार पुष्ट रहने चाहिए। बच्चे नवकार मंत्र को याद भी करें और समय-समय पर इसका जप भी करें। श्रावक-श्राविकाएं अपने साथ-साथ बच्चों के भी भोजन की शुद्धता के प्रति जागरूकता रखें। बच्चे कहीं भी पढ़ें, उनके भोजन में कहीं भी नॉनवेज का समावेश नहीं होना चाहिए। दवाइयों इत्यादि में नॉनवेज हो तो उनके विकल्प देखने चाहिए आचार्यश्री ने “भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा” के वर्णन प्रसंग को आगे बढ़ाया और फरमाया कि भगवान महावीर की आत्मा अपने अंतिम 27वें भव में वर्धमान के रूप में आई। वर्धमान जब आठ वर्ष के हुए तो उन्हें पाठशाला में कलाचार्यजी के पास पढ़ने के लिए ले जाया गया पर पहले दिन ही वर्धमान को पाठशाला जाने से मुक्ति मिल गई।
पूज्य प्रवर ने फरमाया कि बचपन का समय विकास का होता है। जीवन का पहला भाग विद्या के अर्जन का विशेष समय होता है। हमारे अनेक चारित्रात्माएं जो किशोरावस्था में हैं, उन्हें अपने भीतर ज्ञान के विकास का खूब अच्छा प्रयास करना चाहिए। वर्धमान और बड़े हुए और माता-पिता ने चिंतन करके नरेश समरवीर की पुत्री ‘यशोदा’ के साथ वर्धमान का विवाह कर दिया। यद्यपि दिगंबर परंपरा में ‘महावीर’ के विवाह की बात नहीं है। वर्धमान की एक पुत्री हुई, जिसका नाम था प्रियदर्शना। एक दोहित्री भी हुई जिसका नाम था शेषवती। वर्धमान के माता-पिता, जो पार्श्व-परंपरा के थे, अनशन स्वीकार किया और दोनों की जीवन यात्रा का क्रम संपन्न हुआ। वर्धमान ने गर्भावस्था में किए गए अपने संकल्प के पूरा होने पर चाचा सुपार्श्व और भाई नंदीवर्धन के पास गए और उनके सम्मुख बात रखी कि मुझे दीक्षा लेनी है।
वर्धमान से कहा गया कि अभी दो वर्ष तक राजघराने में राजकीय शोक चल रहा है, इस बीच दीक्षा आदि का आयोजन संभव नहीं है। वर्धमान ने यह बात स्वीकार कर ली। इन दो वर्षों में साधना का जीवन जीया। समय पूरा होने पर नौ लोकांतिक देवों ने वर्धमान के पास आकर दीक्षा लेने और धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने हेतु निवेदन किया। मृगसर कृष्णा दशमी के दिन ज्ञानखण्ड वन में तीसरे प्रहर पूर्वाभिमुख होकर पंचमुष्ठि लोचन किया और बेले के तप में ‘सव्वं में अकरणिज्जं पावकम्मं’ का उच्चारण करके सामायिक चारित्र ग्रहण कर लिया और अणगार बन गए।
आचार्य प्रवर ने भगवान के साधनाकाल, चंडकौशिक सर्प, शूलपाणि यक्ष, दस स्वप्न आदि का वृतांत सुनाते हुए कहा कि प्रभु ने साधना काल में विविध प्रकार की तपस्याएं कीं। बेले से कम तपस्या नहीं की। साढ़े बारह वर्ष के साधना काल में तीन सौ उनचास दिन मात्र भोजन किया। साधना काल के तेरहवें वर्ष में जंभिय ग्राम नगर में ऋजुबालिका नदी के किनारे, श्यामाक ग्रहपति के खेत में, शालवृक्ष के नीचे, बेले के तप में, गोदोहिका आसन में, दिन के अंतिम प्रहर, ग्रीष्मकाल, वैशाख शुक्ला दशमी, सुब्रत दिवस, विजय मुहूर्त, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र - इस समय प्रभु को केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात लगभग तीस वर्षों तक प्रभु तीर्थंकर के रूप में विचरते रहे और अंतिम वर्षावास पावापुरी में किया। कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन प्रभु परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। प्रभु का कुल आयुष्य लगभग बहत्तर वर्ष का रहा। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के पश्चात मुख्य मुनिश्री महावीर कुमारजी ने भगवती संवत्सरी के महत्त्व की विवेचना की। पुनः आचार्यश्री ने तेरापंथ के आचार्यों के जीवन प्रसंगों का वर्णन किया। मुख्य मुनिप्रवर ने वर्तमान अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमण के कई जीवन प्रसंग श्रद्धालुओं के समक्ष प्रस्तुत किए। मुनि राजकुमारजी ने संवत्सरी के संदर्भ में सुमधुर गीत का संगान किया।