
गुरुवाणी/ केन्द्र
जप, ध्यान और स्वाध्याय से समय को बनाएं सार्थक : आचार्यश्री महाश्रमण
पर्युषण पर्वाराधना का सातवां दिन। वीर भिक्षु समवसरण में तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अधिशास्ता, तीर्थंकर प्रभु महावीर के प्रतिनिधि, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा के प्रसंग को गति प्रदान करते हुए फरमाया कि वर्तमान में अवसर्पिणी काल के इस भरत क्षेत्र में पांचवां अर-दुःषम अर चल रहा है। इस अर के प्रारंभ से पूर्व चतुर्थ अर दुःषम-सुषम अर की अन्तिम शताब्दी का समय था। चतुर्थ अर के लगभग पचहत्तर वर्ष और साढ़े आठ माह शेष रहे थे। उस समय आषाढ़ शुक्ला षष्ठी को बीस सागरोपम का आयुष्य भोगकर भगवान की आत्मा देवलोक से च्युत होती है। जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की वैशाली नगरी में स्थित ब्राह्मणकुंड ग्राम में ऋषभदत्त ब्राह्मण और उसकी भार्या देवानंदा थी। देवानंदा की कुक्षि में सिंह उद्भव की भांति भगवान महावीर की आत्मा विराजमान हो जाती है। ऋषभदत्त और देवानंदा भगवान पार्श्व के अनुयायी थे। आगम में कहा गया है कि भगवान महावीर से जुड़े हुए पांच महत्त्वपूर्ण प्रसंग हस्तोत्तरा नक्षत्र में हुए थे, हस्तोत्तरा नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र है। इसी नक्षत्र में च्यवन होता है और आत्मा गर्भस्थ होती है। देवानंदा की कुक्षि में वह आत्मा शिशु के रूप में पल रही है।
इन्द्र ने चिंतन किया कि तीर्थंकर महावीर का जन्म किसी और अच्छे स्थान पर होना चाहिए। वैशाली में ही सिद्धार्थ की भार्या त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि से भगवान का जन्म होना चाहिए। देवानंदा और त्रिशला दोनों गर्भवती थीं, इन्द्र ने देव को गर्भ संहरण कर दोनों के गर्भ की अदला-बदली करने हेतु आदेश दिया और गर्भ की तियांसवीं रात्रि आश्विन कृष्णा त्रयोदशी को गर्भ की प्रक्रिया संपन्न हुई।
गर्भ संहरण के पश्चात मां त्रिशला ने चौदह स्वप्न देखे। ऐसे अच्छे स्वप्न देखकर त्रिशला ने सिद्धार्थ को जगाकर अपने स्वप्नों की जानकारी दी। स्वप्न सुनकर सिद्धार्थ ने भी कहा कि तुमने उदार, कल्याण, आरोग्य, पुष्टि, दीर्घायुष्य, मंगलकारक स्वप्न देखे हैं, लगता है कोई उत्तम पुत्ररत्न हमें प्राप्त होने वाला है। सिद्धार्थ ने स्वप्न पाठकों को बुलाकर त्रिशला द्वारा देखे गए स्वप्नों के बारे में बताया और उनसे फलादेश बताने हेतु कहा। स्वप्न शास्त्रियों ने बताया कि त्रिशला की कुक्षि से उत्पन्न पुत्र जवानी में चतुर्थ चक्रवर्ती बनेगा अथवा त्रैलोक्यनायक धर्म चक्रवर्ती बनेगा। स्वप्न पाठकों को दक्षिणा देकर विदा किया गया।
एक दिन गर्भस्थ शिशु, जो विशिष्ट ज्ञानी है, ने सोचा कि मैं मां के पेट में हूं और मेरी चंचलता से मां को कष्ट होता होगा। मां को दुःख न हो, इसलिए अपने शरीर को स्थिर कर लिया। हलन-चलन बंद होने से मां के मन में बुरी कल्पना आ गई कि लगता है मेरा गर्भ कृत हो गया है। मां शोक सागर में निमग्न हो गई। महल में उत्सव का माहौल बंद कर दिया गया। शिशु ने देखा कि मेरे स्पंदन बंद करने से मां और अधिक दुःखी हो गई। शिशु ने पुनः स्पंदन शुरू किया और मां वापस आनंदित हो गई। गर्भस्थ शिशु ने सोचा कि मेरे थोड़ी देर हलन-चलन बंद कर देने से मां इतनी दुखी हो गई तो मेरे माता-पिता की विद्यमानता में यदि मैं दीक्षा हेतु घर छोड़ूंगा तो उन्हें कितना कष्ट होगा ! शिशु ने गर्भ में संकल्प कर लिया कि जब तक मेरे माता-पिता जीवित रहेंगे मैं दीक्षा नहीं लूंगा। सम्पूर्ण गर्भकाल का समय पूरा होता है और चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की मध्यरात्रि, हस्तोत्तरा नक्षत्र में ईसा पूर्व 599 और विक्रम पूर्व 542 में मां त्रिशला ने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया। पूरे राजपरिवार में आनंद छा गया और इस संदर्भ में कई घोषणाएं की गईं। शिशु जब बारह दिन का हुआ तो नामकरण की चर्चा हुई। स्वजन वर्ग एकत्रित हुआ, सिद्धार्थ ने कहा कि जब से बालक आया है, हमारे राज्य में धन-धान्य, हिरण्य, सुवर्ण में वर्धमानता आई है, मेरा सुझाव है कि बालक का नाम वर्धमान रखा जाए। लोगों ने यह नाम सहर्ष स्वीकार किया। इस प्रकार आचार्य प्रवर ने भगवान महावीर के बाल्यकाल की अवस्था का सुन्दर विवेचन करते हुए बताया कि जीवन में तो कोई पुत्र मां की सेवा कर सकता है, पर महावीर के जीव ने गर्भकाल में ही संकल्प कर लिया कि मेरे कारण मां को कष्ट नहीं पड़े।
ध्यान दिवस अवसर पर आचार्य प्रवर ने फ़रमाया कि ध्यान और जप तो मानो भाई-भाई हैं। नवकार मंत्र की एक माला प्रतिदिन अवश्य होनी ही चाहिए। नवकार शुद्ध अध्यात्ममय पाठ है। आचार्य प्रवर ने श्वास के साथ मंत्र जप का प्रायोगिक प्रशिक्षण भी प्रदान करवाया। ध्यान के माध्यम से निर्विचारता तक चलें जाए। जप, ध्यान और स्वाध्याय से समय को सार्थक करने का प्रयास करें। आचार्य प्रवर के प्रवचन से पूर्व दस धर्मों में अन्तिम ब्रह्मचर्य धर्म पर मुख्य मुनिप्रवर ने चर्चा करते हुए कहा कि लज्जा, दया और संयम से संपन्न व्यक्ति ही ब्रह्मचर्य की साधना कर सकता है। जो व्यक्ति इन गुणों से संपन्न होते हैं, उनकी आत्मा क्रमशः शुद्धतम अवस्था की ओर बढ़ती जाती है। अब्रह्मचर्य के दोषों को बताते हुए कहा कि यह समस्त दोषों का मूल है और इसका सेवन कायर पुरुष करते हैं। जो व्यक्ति आत्मलीन रहता है वही सच्चा ब्रह्मचारी हो सकता है।
ध्यान दिवस पर अपनी अभिव्यक्ति देते हुए साध्वीप्रमुखाश्री ने कहा कि अपने आप को देखने का एक सशक्त माध्यम है ध्यान। जो व्यक्ति ध्यान करता है वही सुख की अनुभूति कर सकता है। जैन आगमों में चार प्रकार के ध्यान का वर्णन है - आर्त्त ध्यान, रौद्र ध्यान, धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान। प्रथम दो ध्यान अप्रशस्त और अंतिम दो प्रशस्त ध्यान हैं। हमें जीवन में आर्त्त ध्यान और रौद्र ध्यान से बचना चाहिए। मुनि मनन कुमार जी, मुनि राजकुमार जी, मुनि केशीकुमार जी ने विविध विषयों पर अपनी प्रस्तुति दी। ध्यान दिवस पर साध्वी प्रफुल्लप्रभा जी, साध्वी श्रुतिप्रभा जी और साध्वी अवन्तिप्रभाजी ने गीतिका का संगान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।