सांसारिक, पौद्गलिक, वैषयिक, भौतिक सुख हैं क्षणिक : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 03 सितम्बर, 2025

सांसारिक, पौद्गलिक, वैषयिक, भौतिक सुख हैं क्षणिक : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण

वि.सं. 2082 भाद्रव शुक्ला एकादशी का पावन दिवस, प्रेक्षा विश्व भारती अहमदाबाद का वीर भिक्षु समवसरण ऐतिहासिक पलों का साक्षी बना, जब तेरापंथ धर्म संघ के एकादशमाधिशास्ता युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण ने सत्रह मुमुक्षुओं को भव्य दीक्षा समारोह में दीक्षा प्रदान की। दीक्षा की अनुमोदना हेतु विशाल जनमेदिनी उपस्थित थी। अहमदाबाद में पहली बार आचार्यश्री महाश्रमणजी ने एक साथ मुनि दीक्षा, साध्वी दीक्षा और समणी दीक्षा प्रदान की। प्रेक्षा विश्व भारती के मनोरम प्रांगण में दस दीक्षार्थी बहिनें एवं सात दीक्षार्थी भाई संसार के पथ को छोड़, वैराग्य के पथ पर अग्रसर हुए।
समारोह के प्रारंभ में सभी दीक्षार्थियों ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। उसके पश्चात् मुमुक्षु रूचिका और मुमुक्षु भावना ने दीक्षार्थियों का संक्षिप्त परिचय दिया। पारमार्थिक शिक्षण संस्था के अध्यक्ष बजरंगलाल जैन ने दीक्षार्थियों के अभिभावकों के हस्ताक्षरों से युक्त आज्ञा पत्र का वाचन किया। दीक्षार्थियों के अभिभावकों ने व्यक्तिगत रूप से लिखित आज्ञा पत्र गुरुदेव को प्रस्तुत किए। साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि आज का दिन बड़ा पुनीत दिन है क्योंकि सत्रह मुमुक्षु भाई-बहन आज संन्यास के कठोर मार्ग पर प्रस्थान कर रहे हैं। आज टेक्नोलॉजी का युग है तथा सभी दीक्षार्थी इसी युग से आए हैं। इस युग को छोड़कर आज ये संयम के मार्ग पर प्रस्थान कर रहे हैं, यह उनकी विरक्ति का प्रतीक है।
दीक्षा से पूर्व शिक्षा
परम पूज्य आचार्य प्रवर ने पावन संबोध प्रदान करते हुए फरमाया कि संसार के काम-भोग, वैषयिक सुख, पौद्गलिक सुख कुश के अग्र भाग पर लटक रही बूंद के समान है, जो कभी भी गिरकर समाप्त हो जाती है। इसी प्रकार ये सांसारिक, पौद्गलिक, वैषयिक, भौतिक सुख भी थोड़ी देर के होते हैं और कुछ समय में समाप्त हो जाते हैं। शास्त्र में दूसरी बात कही है कि तुम्हारा आयुष्य भी संक्षिप्त है, सीमित है। इस हेतु को सामने रखकर तुम अपने योगक्षेम के बारे में ज्ञान नहीं कर रहे हो, ध्यान नहीं दे रहे हो। योगक्षेम का अर्थ है – जो आध्यात्मिक दृष्टि से अब तक खजाना नहीं मिला है, उसे प्राप्त करने का प्रयास करना। जो कुछ मिल गया है, उसका संरक्षण करना।
लगता है दीक्षार्थियों ने शास्त्र की इस वाणी को, चेतावनी को किसी रूप में मानो स्वीकार किया है और आत्म कल्याण अथवा योगक्षेम के लिए उस दिशा में आगे बढ़ने के लिए उद्यत हुए हैं। गुरुदेव ने दीक्षार्थियों के पारिवारिक जनों से मौखिक स्वीकृति भी प्राप्त की। तत्पश्चात् दीक्षार्थी भाई-बहिनों से भरी परिषद में प्रश्नोत्तर किए और परीक्षण किया। गुरुदेव द्वारा आर्षवाणी का उच्चारण किया गया और जो कुछ समय पूर्व संसारी थे, वे मुमुक्षु संन्यास जीवन में प्रविष्ट हो गए। हजारों श्रद्धालुओं के जन समूह ने 'मत्थएण वन्दामि' के उच्चारण के साथ नवदीक्षित साधु-साध्वियों को वंदन किया।
गुरु के हाथ में शिष्य की चोटी
दीक्षा संस्कार के पश्चात् नवदीक्षित मुनियों का पूज्य गुरुदेव द्वारा केश लुंचन किया। साध्वीप्रमुखाश्री ने नवदीक्षित साध्वियों व समणियों का केश लुंचन किया। इसके पश्चात् जैन साधु की पहचान ‘रजोहरण’ प्रदान करते हुए गुरुदेव ने संयम पथ पर ज्ञान, दर्शन और चारित्र में वर्धमान रहने का पावन आशीष प्रदान किया। दीक्षा के पश्चात् गुरुदेव ने नवदीक्षितों का नवीन नामकरण किया।
गुरु से बोध पाठ -शिष्य का सौभाग्य
मंगल उद्बोधन में गुरुदेव ने फरमाया कि वह भाग्यशाली होता है, जिसे दीक्षा प्राप्त होती है। संयम की संपदा के समक्ष संसार के सभी हीरे-जवाहरात भी फीके हैं। गुरुदेव ने नवदीक्षितों को प्रेरणा देते हुए कहा कि साधु जीवन में अब हर क्रिया संयमपूर्वक होनी चाहिए। चलने में संयम, भोजन में संयम, बैठने में संयम, उठने में संयम, बोलने में संयम – हर गतिविधि में संयम होना चाहिए। दीक्षा समारोह का मंच संचालन मुनिश्री दिनेशकुमारजी ने किया।