
गुरुवाणी/ केन्द्र
आत्मा की दृष्टि से शुद्ध आय है धर्म में लगा समय : आचार्यश्री महाश्रमण
हमारे जीवन की महत्तम संपदा धर्म होती है। धर्म से च्युत नहीं होना चाहिए। कोई त्याग, नियम, संकल्प लिए हैं, देव, गुरु धर्म के प्रति आस्था को स्वीकार किया है, अहिंसा, सत्य आदि को किसी सीमा तक नियम रूप में स्वीकार किया है और जीवन में कोई स्थिति आई और वह व्यक्ति धर्म को छोड़ देता है, च्युत हो जाता है, ऐसा व्यक्ति आगे जन्म-मरण की परंपरा में फंस सकता है। उपरोक्त पाथेय कोबा के वीर भिक्षु समवसरण में लाखों को राह दिखाने वाले परम पावन आचार्य श्री महाश्रमण जी ने आयारो पर आधारित प्रवचन श्रृंखला के अंतर्गत प्रदान किया।
पूज्यवर ने आगे फरमाया कि जो अज्ञानी आदमी धर्म से च्युत हो जाता है, वह उन नादान व्यक्तियों के समान है जैसे कि किसी को चिंतामणि रत्न मिला और वह उसे फेंककर कांच का टुकड़ा अपनी जेब में रख लेता है, दूसरा घर में उगे कल्पवृक्ष को काटकर उसके स्थान पर धतूरे का पौधा लगा देता है, और तीसरा बढ़िया हाथी घर में था, उसे बेचकर गधे खरीद लाता है। दीक्षा लेना धर्म को स्वीकार करना होता है। सर्व सावद्य योग विरति रूपी चारित्र को स्वीकार कर लेना बहुत बड़ा धर्म का ग्रहण होता है। ऐसा धर्म हमेशा जीवन भर बना रहना चाहिए। चारित्र भले ही अगले जन्म में साथ न जाए, सम्यक्त्व साथ में रहना चाहिए। जीवन में कठिनाई आने पर भी हमें धर्म को नहीं छोड़ना चाहिए। साधुपन में साधु को पक्का मन रखना चाहिए, बीच में नहीं छोड़ना चाहिए। श्रावक ने भी जो नियम ग्रहण किए हुए हैं, उनके पालन के प्रति जागरूकता रहनी चाहिए।
साधुपन न भी ले सकें तो जो संकल्प जैसे बारह व्रत आदि लिए हैं, वह जीवन की एक बड़ी संपत्ति है। धर्म बहुत बड़ी उपलब्धि होती है, कमाई होती है। जो मनुष्य गति में धर्म किया जाता है, आगे देव गति भी मिल जाए तो देव गति में भी धर्म-संयम आदि सिद्धान्ततः नहीं किया जा सकता है। मनुष्य गति में त्याग, नियम, श्रद्धा, आस्था आदि आत्मा के कल्याण के लिए है। गृहस्थ जीवन में भी यह चिंतन रखना चाहिए कि इतनी चीजें जैसे सामायिक नियम, त्याग आदि मेरी आत्मा के लिए हैं, बाकी चीजें परिवार और समाज के लिए हैं। जो मेरा धर्म में समय लगता है, वह आत्मा की दृष्टि से मेरी शुद्ध आय है। पारिवारिक, सामाजिक, व्यापारिक, व्यावसायिक गतिविधियों में जितना धर्म को जोड़ा जा सके, जोड़ना चाहिए। ईमानदारी के प्रति निष्ठा रहे, धोखा-धड़ी का कार्य न हो, पारदर्शिता रहे तो यह भी धर्म के खाते की चीज बन सकती है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस मनुष्य जीवन में अपनी आत्मा के प्रति जागरूकता रखना। पारिवारिक, सामाजिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए भी धर्म के साथ जुड़े रहना चाहिए, धर्म का भाव रहना चाहिए। सांसारिक कार्यों में भी निर्मलता रखनी चाहिए।
प्रवचन के पश्चात् जैन विश्व भारती के अध्यक्ष अमरचंद लुंकड़ व जयंतीलाल सुराणा ने जैन विश्व भारती के वार्षिक अधिवेशन एवं लाडनूं में आयोजित होने वाले योगक्षेम वर्ष के संदर्भ में अपनी विचारोभिव्यक्ति दी। संस्था द्वारा 'शासनसेवी' सुरेंद्र चोरड़िया को 'संघ सेवा पुरस्कार' से सम्मनित किया गया। जैन विश्व भारती के संदर्भ में पावन उद्बोधन प्रदान करते हुए परम पूज्य गुरुदेव ने कहा कि तेरापंथ धर्म संघ में अनेक संगठन मूलक संस्थाएं हैं। जैन विश्व भारती संगठन मूलक संस्था नहीं है, इसकी जगह-जगह शाखाएं नहीं हैं। यह एक संस्था है, पर एक होने पर भी एक मजबूत और विराट संस्था है। आचार्यश्री तुलसी ने लगातार दो चातुर्मास केवल जैन विश्व भारती में ही किए। सन् 1991 व 1992 तथा 1995 व 1996 के लगातार चातुर्मास आचार्यश्री तुलसी ने जैन विश्व भारती में किए। गुरुदेव तुलसी के प्रवास की मुख्य भूमि जैन विश्व भारती लाडनूं रही है।
जैन विश्व भारती को कामधेनु कहा गया है। इसके साथ साधना, सेवा, साहित्य और अनेक गतिविधियां जुड़ी हुई हैं। मान्य विश्वविद्यालय भी जैन विश्व भारती से ही संबद्ध है। जैन समाज के अनेक साधु-साध्वियां जैन विश्व भारती इंस्टीट्यूट से एम.ए., पी.एच.डी. आदि शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। जैन विश्व भारती आचार्यश्री तुलसी के समय की एक उपज है। इस संस्था ने अच्छा विकास किया है। जैन विश्व भारती के कार्यकर्ता आध्यात्मिक उत्साह रखते हुए जितनी धार्मिक-आध्यात्मिक गतिविधियों को आगे बढ़ाने में अपनी सेवा दे सकें, उतना देने का प्रयास करें।