आज भी चल रही हैं आचार्य भिक्षु द्वारा दी गयी व्यवस्थाएं :  आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 05 सितम्बर, 2025

आज भी चल रही हैं आचार्य भिक्षु द्वारा दी गयी व्यवस्थाएं : आचार्यश्री महाश्रमण

तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, तीर्थंकर प्रभु महावीर के प्रतिनिधि, वर्तमान के भिक्षु, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने तेरापंथ धर्म के संस्थापक, आद्य आचार्य, आचार्यश्री भिक्षु के 223वें चरमात्सव पर अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि मुनि वह होता है जो लोक को भिन्न दृष्टि से देखता है। एक सामान्य जन इन्द्रिय विषयों में आसक्त हो जाता है, वह पदार्थों को प्रियता की दृष्टि से देख सकता है और किन्हीं पदार्थों को अप्रियता की दृष्टि से भी देख सकता है। यह अनुस्रोतगामी सामान्य व्यक्ति की स्थिति हो सकती है। परंतु अध्यात्म के पथ पर आरूढ़ रहने वाले मुनि का दृष्टिकोण भिन्न होता है, वह पदार्थों में समभाव की दृष्टि रखने वाला होता है। मनोज्ञ के प्रति राग भाव नहीं और अमनोज्ञ के प्रति द्वेष भाव में नहीं जाना चाहिए। साधुत्व को प्राप्त हो जाना बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। अध्यात्म की दृष्टि वाले मुनि के लिए भौतिक सुविधाएं, पैसा या ऐसी चीजें नहीं होतीं।
आज भाद्रव शुक्ला त्रयोदशी के दिन एक संत पुरुष का चरम दिवस है। आज से लगभग 300 वर्ष पूर्व आचार्य भिक्षु का प्राकट्य हुआ था। आज का दिन उन्हीं के महाप्रयाण से जुड़ा हुआ दिन है। आचार्य भिक्षु की मां ने सिंह का स्वप्न देखा था। समय समय पर जब धर्म का ह्रास होता है तब तब ऐसी आत्माएं अवतरित होती है जो पुनः धर्म की स्थापना करती है। आचार्य भिक्षु एक विशिष्ट आत्मा थे। वें जब गर्भ में आए तब उनकी माता ने सिंह का स्वप्न देखा था। तीर्थंकरों की माताएं सिंह का स्वप्न देखती है। भगवान महावीर की माता ने सिंह का स्वप्न देखा। आचार्य भिक्षु जैसे साधु की मां अगर सिंह का स्वप्न देखे तो कोई आश्चर्य नहीं।
आचार्य भिक्षु एक परंपरा में दीक्षित हुए, बाद में उस परंपरा से उन्होंने अभिनिष्क्रमण कर दिया था। संघ को छोड़ने वाले तीन प्रकार के व्यक्ति हो सकते हैं। एक वे व्यक्ति जो साधु समुदाय को छोड़कर गार्हस्थ्य में चले जाते हैं। दूसरे वे व्यक्ति जो साधु समुदाय को छोड़कर गृहस्थ तो नहीं बनते, परंतु अपने ढंग से साधना का जीवन जीते हैं। तीसरे वे होते हैं जो साधु संस्था को छोड़कर उस साधु संस्था से भी तेजस्वी साधना का जीवन जीते हैं। आचार्य भिक्षु उस प्रकार के व्यक्ति थे जिन्होंने एक साधु परंपरा को छोड़ा और उससे कहीं अधिक कठोरता, निर्मलता का साधुपन पाला। समय-समय पर ऐसी क्रांतियों की आवश्यकता भी होती है क्योंकि इस प्रकार के कदम उठाए जाने से उस समुदाय के विकास में त्वरा आ सकती है या उस जगत में विशिष्टता, तेजस्विता आ सकती है। दुनिया में कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जो उत्साह से आगे बढ़ते हैं, दूसरों में विशेष कुछ करने की चाह पैदा कर देते हैं और अपने पुरुषार्थ के द्वारा एक नई राह बना देते हैं।
'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।'
श्रीमद्भगवदगीता के उपरोक्त श्लोक के संदर्भ में आचार्य भिक्षु को व्याख्यायित करते हुए कहा गया कि आचार्य भिक्षु जन्में और बाद में उन्होंने अभिनिष्क्रमण कर, सिद्धान्त व आचार के विषय में आवाज उठाई, अपना मंतव्य रखा और आगे बढ़े। साधु संस्था को छोड़कर जाने वाले साधुओं की तीन कोटियों में वे तीसरी कोटि, विशिष्ट साधुपन पालने वालों की कोटि के व्यक्ति थे। यह भी एक महत्त्वपूर्ण बात है कि आचार्य भिक्षु की परंपरा, उनके महाप्रयाण के बाद भी, तेरापंथ स्थापना के 265 वर्षों से अधिक समय हो जाने के बाद भी चली आ रही है। जो बातें आचार्य भिक्षु के समय में निर्धारित हुईं, उनका भी यथानुरूप पालन हो रहा है। जैसे वि.सं. 1832 के लिखित में जो मर्यादाएं लिखी गईं कि सर्व साधु-साध्वी भावी आचार्य की मर्यादा में चलें, एक आचार्य की परंपरा आज तक तेरापंथ धर्म संघ में चल रही है। दीक्षा स्वयं आचार्य ही सामान्यतः देते हैं, परंतु यदि कोई दूसरा भी दे तो वह उसको चेला-चेली नहीं बनाता। विहार चातुर्मास आचार्य की आज्ञा से करने की आज भी हमारी परंपरा है। आचार्य भिक्षु ने जो व्यवस्थाएं दीं, वे सिर्फ कागजों में ही नहीं, व्यावहारिक धरातल पर भी चली आ रही हैं। आचार्य भिक्षु की ज्ञान चेतना उच्च कोटि की थी। उनके जीवन में हम ज्ञान, दृढ़ निष्ठा और आचार को देख सकते हैं।
आचार्य भिक्षु जन्म त्रिशताब्दी वर्ष के द्वितीय चरण का आज तृतीय दिवस है। आचार्य भिक्षु ने धर्म संघ को अनेक शिक्षाएं फरमाई हैं। जैसे परस्पर साधु-साध्वियों को हेतु का भाव रखना चाहिए, पवित्र सौहार्द भाव रखना चाहिए। वर्तमान में धर्म संघ के साधु-साध्वियों में सौहार्द का ही भाव है। स्वामीजी की शिक्षा चरितार्थ हो रही है। एक शिक्षा दीक्षा के बारे में भी दी गई कि दीक्षा देख-देख कर देना, यह शिक्षा भी चरितार्थ हो रही है। वर्तमान में भी हम जिण-तिण को नहीं मूंडते, देखकर परीक्षा में मजबूती से दीक्षा दी जा रही है। आज भी हम स्वामीजी द्वारा खींची गई मर्यादा की रेखा पर चल रहे हैं।
श्रावक-श्राविकाओं में भी त्याग की भावना, तपस्या, प्रवचन श्रवण, साधु-साध्वियों की सेवा इत्यादि की अच्छी भावना है। अपनी समस्त सुख-सुविधाओं को छोड़कर यहां अपनी धर्म साधना कर रहे हैं। रास्ते में अपनी सेवा देते हैं। कई संस्थाओं के कार्यकर्ता अपना समय लगाते हैं और काम करते हैं। स्वामीजी के प्रति श्रावक-श्राविका समुदाय में अच्छी भक्ति भावना देखने को मिल रही है। समण श्रेणी भी विदेशों तक में तेरापंथ को पहुंचा रही है। साधु-साध्वियां भी अच्छा धर्म का कार्य कर रहे हैं और अच्छा धर्म संघ की प्रभावना करते रहेंगे। इस अवसर पर पूज्य गुरुदेव ने भिक्षु चरमोत्सव पर स्वचरित गीत का संगान किया।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि जैन परंपरा के प्रभावक आचार्यों में एक आचार्य भिक्षु हैं। आचार्य भिक्षु आत्म केंद्रित साधक थे, अध्यात्म के प्रवक्ता थे, सत्य अनुसंधाता थे, अर्हत वाणी के भाष्यकार थे और धर्म क्रांति के सूत्रधार थे। अर्हतवाणी के आधार पर उन्होंने अनेक नई प्रस्थापनाएं कीं और उनके आधार पर वे दार्शनिकों की शीर्षस्थ पंक्ति में खड़े हो गए। वे कुशल प्रशासक, अनुशास्ता और आदर्श गुरु थे। इन सब के मूल में उनकी निर्मल चेतना थी। मुख्य मुनि श्री महावीर कुमार जी ने आचार्य भिक्षु को भावांजलि अर्पित करते हुए कहा कि आचार्य भिक्षु जैसे व्यक्तित्व की महिमा को शब्दों में बांधना संभव नहीं है। आचार्य भिक्षु का ज्ञान अग्नि की तरह निर्धूम, श्रद्धा ध्रुव तारे की तरह निश्चल और चारित्र स्फटिक की तरह स्वच्छ और निर्मल था।
सत्य शोध की दिशा में जहाँ वे अनाग्रही थे, सत्य साधना में वे आग्रही थे। सत्य साधना के क्षेत्र में उन्हें कोई विचलित नहीं कर सकता था। आचार्य भिक्षु जन्म त्रिशताब्दी वर्ष हम सबको प्रेरणा देने वाला और जीवन में परिवर्तन लाने वाला बन सकता है। उनकी दी गई शिक्षाओं का महत्त्व आज के इस वैज्ञानिक युग में और निखार को प्राप्त हो रहा है। संत वृंद द्वारा गीत के माध्यम से प्रस्तुति दी गई। तेरापंथ युवक परिषद अहमदाबाद के युवकों ने भी गीतिका द्वारा श्रद्धाभिव्यक्ति दी। अन्त में संघ गान के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।