अहिंसामय हो साधु की जीवन चर्या : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 06 सितम्बर, 2025

अहिंसामय हो साधु की जीवन चर्या : आचार्यश्री महाश्रमण

महातपस्वी महामनस्वी युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आयारो आगम के माध्यम से पावन देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि कर्मवाद का सिद्धान्त है कि जो राग-द्वेष युक्त हिंसा की जाती है, उसका दुष्परिणाम होता है। कर्मवाद को अत्यन्त संक्षेप में बताना हो तो ‘जैसी करणी-वैसी भरणी’ इन चार शब्दों में सार समाहित हो जाता है। व्यक्ति बुरा करता है तो बुरा फल प्राप्त करता है, अच्छा करता है तो अच्छा फल। जैन दर्शन में आठ कर्मों का वर्णन है। इनका विस्तार किया जा सकता है। कर्मवाद की बात को जानकर साधक, मुनि हिंसा नहीं करें, संयम करें, इन्द्रियों आदि का उच्छृंखल व्यवहार न करें। यह जानते हुए कि हिंसा से दुःख उत्पन्न होते हैं, मुनि को हिंसा से बचना चाहिए। यदि कोई मेरा अनिष्ट भी कर दे, तो भी मैं उसके प्रति अनिष्ट कर्म न करूं। समता भाव रखना चाहिए, द्वेष नहीं करना चाहिए। किसी को भी तकलीफ पहुँचाने का प्रयास साधु को नहीं करना चाहिए। क्षमा का भाव रखना चाहिए।
साधु की जीवनचर्या अहिंसामय होनी चाहिए। बातचीत में, चलने में, चिंतन में सभी में अहिंसा का आचरण रहना चाहिए। नवदीक्षित साधु-साध्वियों, समणियों को विशेष रूप से जागरूकता की प्रेरणा देते हुए पूज्यप्रवर ने फरमाया कि साधु जीवन में चलने में विशेष सतर्कता रखें ताकि कोई कीड़ा मकौड़ा पैर के नीचे न आ जाए। खुले मुंह नहीं बोलें। आहार के समय यथा संभव मौन रखें। विहार आदि के समय हरियाली, काई आदि से जितना बचाव हो सके, उतना प्रयास करें।
जिस साधु ने कर्मवाद को जान लिया, उसे इन्द्रिय संयम रखना चाहिए। श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्शन का जितना अपेक्षित हो उपयोग करें, अन्यथा समुचित रूप में संयम रखना चाहिए। इन्द्रियों को अनुशासित बनाए रखना चाहिए। मन और प्रवृत्तियों का भी संयम करना चाहिए। अपना समय ज्ञानार्जन में लगाना चाहिए। आगम और अन्य ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिए। हमारी चर्या में, आचरण में, व्यवहार में संयम झलके, संयम घुल-मिल जाए। चलने में, बोलने में, खाने में, सोने में, बैठने में, पढ़ने में आदि हर बात में संयम रहे, ऐसा प्रयास करना चाहिए। मन भी यदि इधर-उधर की बातों में विचलित हो जाए, तो मन रूपी घोड़े की लगाम खींचकर उसे नियंत्रित करना चाहिए। अपने से बड़े संतों का नाम लेना पड़े तो नाम के आगे ‘स्वामी’ लगाए। बोलने में ‘आप’ शब्द का प्रयोग करें। यह बात हमारे मस्तिष्क में, अध्यवसायों में, अवचेतन मन में हमेशा बनी रहे कि मेरा व्यवहार साधुता के अनुरूप होना चाहिए। ऐसा होने से हमारी आत्मा निर्मल रहती है, निर्मल बनती है और पाप कर्मों के बंधन से आत्मा का बचाव होता है। अशुभ योग से पाप कर्मों का बंधन न हो, यह प्रयास होना चाहिए। अशुभ योग में न जाना ही साधुता है। शुभ योग में रहने का प्रयास करना चाहिए।
प्रवचन के पश्चात् चतुर्दशी के संदर्भ में हाजरी वाचन का कार्यक्रम हुआ। गुरुदेव ने मर्यादा पत्र का वाचन करते हुए कहा कि आचार्य भिक्षु ने न्याय, संविभाग, समभाव वृद्धि, पारस्परिक प्रेम, कलह निवारण और संघ की सुव्यवस्थाओं के लिए मर्यादा पत्र का निर्माण किया। नवदीक्षित साधु साध्वियों एवं समणी वृंद ने लेख पत्र का वाचन किया। गुरूदेव ने सभी को 21-21 कल्याणक बक्शीश रूप में प्रदान किए। मुख्यमुनि श्री महावीर कुमार जी ने विचारों की अभिव्यक्ति दी।
आज के समारोह में अणुव्रत विश्व भारती सोसाइटी के 76 वें राष्ट्रीय अधिवेशन के मंचीय कार्यक्रम का आयोजन हुआ। राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रताप दुगड़ एवं महामंत्री मनोज सिंघवी ने वक्तव्य दिया। अणुव्रत के पदाधिकारियों ने समूह गीत का संगान किया। पूज्य गुरुदेव ने आशीर्वचन प्रदान करते हुए कहा कि ‘अणुव्रत’ परम पूज्य गुरुदेव तुलसी के समय प्रारंभ हुआ और 75 वर्षों की कालावधि को पार कर वह आगे बढ़ गया है। अणुव्रत, नैतिकता और संयम के संदर्भ में जन उत्थान का कार्य है। अणुव्रत की गतिविधियों को आगे बढ़ाने के संदर्भ में अणुव्रत विश्व भारती सोसाइटी दायित्वशील संस्था है। इसी के अन्तर्गत जीवन विज्ञान भी सम्मिलित है।
अणुव्रत का कार्य क्षेत्र देश-विदेश सब जगह रह सकता है। अणुविभा के अन्तर्गत समितियों के माध्यम से अच्छा कार्य होता रहे। अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह, जो 1 से 7 अक्टूबर तक आयोजित होता है, अणुव्रत को फैलाने में यह एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम है। यह अणुव्रत के प्रति जागृति लाने का विशेष अवसर है। सभी कार्यकर्ता अणुव्रत की बात को प्रसारित करने में, नैतिकता और अहिंसा की बात को फैलाने में और एक अच्छी चेतना का विकास करने में योगभूत बनें।