श्रमण महावीर

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

श्रमण महावीर

भगवान् ने संयम को इतनी प्रधानता दी कि उसके सामने वेश और परिवेश के प्रश्न गौण हो गए। साधुत्व की प्रतिमा बाहरी आकार-प्रकार से हटकर अन्तर के आलोक की वेदी पर प्रतिष्ठित हो गई।
३. धर्म और सम्प्रदाय
यदि पात्र के बिना प्रकाश, छिलके के बिना फल और भाषा के बिना ज्ञान होता तो धर्म सम्प्रदाय से मुक्त हो जाता। पर इस दुनिया में ऐसा नहीं होता। धर्म-दीप की लौ है तो सम्प्रदाय उसका पात्र। धर्म फल का सार है तो सम्प्रदाय उसका छिलका। धर्म चैतन्य है तो सम्प्रदाय उसको व्यक्त करने वाली भाषा।
सम्प्रदाय जब आवरण बनकर धर्म पर छा जाता है, तब पात्र, छिलके और भाषा का मूल्य लौ, सार और ज्ञान से अधिक हो जाता है। भगवान् के युग में कुछ ऐसा ही चल रहा था। सम्प्रदाय धर्म की आत्मा कचोट रहे थे। धर्म की ज्योति सम्प्रदाय की राख से ढकी जा रही थी। उस समय भगवान् ने धर्म को सम्प्रदाय की प्रतिबद्धता से मुक्त कर उसके व्यापक रूप को मान्यता दी।
गौतम ने पूछा- 'भंते! शाश्वत धर्म क्या है?'
भगवान् ने कहा- 'अहिंसा शाश्वत धर्म है।'
अतीत में जो ज्ञानी हुए हैं, भविष्य में जो होंगे।
अहिंसा उन सबका आधार है, प्राणियों के लिए जैसे पृथ्वी ।'
भंते ! कुछ दार्शनिक कहते हैं हमारे सम्प्रदाय में ही धर्म है, उससे बाहर नहीं है। क्या यह सही है?
'गौतम! मेरे सम्प्रदाय में आओ, तुम्हारी मुक्ति होगी अन्यथा नहीं होगी यह सम्प्रदाय और मुक्ति का अनुबन्ध साम्प्रदायिक उन्माद है। इस उन्माद से उन्मत्त व्यक्ति दूसरों को उन्माद ही दे सकता है, धर्म नहीं दे सकता।'
'भंते! कोई व्यक्ति श्रमण-धर्म का अनुयायी होकर ही धार्मिक हो सकता है, क्या यह मानना सही नहीं है?
'गौतम! नाम और रूप के साथ धर्म की व्याप्ति नहीं है। उसकी व्याप्ति अध्यात्म के साथ है। इसलिए यह मानना सत्य की सीमा में होगा कि कोई व्यक्ति अध्यात्म का अनुयायी होकर ही धार्मिक हो सकता है।'
'भंते! तो क्या धर्म का सम्प्रदाय के साथ अनुबन्ध नहीं है?'
'गौतम! यदि धर्म का सम्प्रदाय के साथ अनुबन्ध हो तो 'अश्रुत्वा केवली' कैसे हो सकता है?'
'यह कौन होता है, भंते ?'
'गौतम! जो व्यक्ति सम्प्रदाय से अतीत है और जिसने धर्म का पहला पाठ भी नहीं सुना, वह आध्यात्मिक पवित्रता को बढ़ाते-बढ़ाते केवली (सर्वज्ञ और सर्वदर्शी) हो जाता है।'
'भंते! ऐसा हो सकता है?'
'गौतम! होता है, तभी मैं कहता हूं कि धर्म और सम्प्रदाय में कोई अनुबन्ध नहीं है। मैं अपने प्रत्यक्ष ज्ञान से देखता हूं–
१. कुछ व्यक्ति गृहस्थ के वेश में मुक्त हो जाते हैं। मैं उन्हें गृहलिंगसिद्ध कहता हूं।
२. कुछ व्यक्ति हमारे वेश में मुक्त होते हैं। मैं उन्हें स्वलिंगसिद्ध कहता हूं।
३. कुछ व्यक्ति अन्य-तीर्थिकों के वेश में मुक्त हो जाते हैं। मैं उन्हें अन्यलिंगसिद्ध कहता हूं।
विभिन्न वेशों और विभिन्न चर्याओं के बीच रहे हुए व्यक्ति मुक्त हो जाते हैं, तब धर्म और सम्प्रदाय का अनुबन्ध कैसे हो सकता है?