जिनेश्वर देव द्वारा प्रवेदित सत्य पर हो आस्था : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 21 सितम्बर, 2025

जिनेश्वर देव द्वारा प्रवेदित सत्य पर हो आस्था : आचार्यश्री महाश्रमण

तीर्थंकर के प्रतिनिधि युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से पावन संबोध प्रदान करते हुए फरमाया कि दुनिया में कुछ चीजें स्पष्ट होती हैं और कुछ चीजें अदृश्य होती हैं, जो सामान्य व्यक्ति के लिए स्पष्टतया अभिव्यक्त नहीं होतीं। जैसे जैन दर्शन में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय अमूर्त होते हैं। आकाश को तो हम फिर भी जानते हैं, पर धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय आम आदमी के लिए अज्ञात और अस्पष्ट हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और जीव – इन चारों के समान तुल्य असंख्य प्रदेश होते हैं, ऐसा शास्त्रों में बताया गया है; परन्तु ये बातें हम प्रत्यक्षतः नहीं जानते। यदि सामान्य व्यक्ति ये सारी बातें जान ले तो फिर सामान्य और सर्वज्ञ में कोई अंतर नहीं रहेगा। ‘आयारो’ में कहा गया है कि वही सत्य है, वही निःशंक है, जो जिनेश्वरों द्वारा प्रवेदित है। परन्तु पुस्तकों में जो कुछ लिखा हुआ है, वह सत्य ही है – यह कहा नहीं जा सकता, क्योंकि उनके लेखन, संपादन, प्रकाशन में त्रुटियां भी हो सकती हैं। जिनेश्वर भगवान द्वारा जो प्रवेदित है, वही सत्य है। उनमें से कई बातें लुप्त और अज्ञात भी हो सकती हैं, परन्तु जो सत्य है, उसे मेरा समर्थन है। मेरी आस्था सच्चाई के प्रति है और उसकी अनुमोदना है।
शास्त्रों में कई बातें वर्णित हैं। उनके आधार पर हम उन्हें मानते हैं और अपनी धारणा बनाते हैं, प्रत्यक्षतः हम उन्हें नहीं जानते। मानने और जानने में बहुत अंतर होता है। ग्रंथों आदि में आई हुई बातों के आधार पर धारणा बनाना ‘मानना’ है और स्वयं के प्रत्यक्ष ज्ञान को ‘जानना’ कहा जा सकता है। हमें शास्त्रों का अनुगमन और अनुश्रवण करने का प्रयास करना चाहिए। परम पूज्य आचार्यश्री के प्रवचन से पूर्व साध्वीवर्या श्री संबुद्धयशाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि आगम में मानव जीवन को दुर्लभ और मूल्यवान बताया गया है। इस मानव जीवन की मूल्यवत्ता बनी रहे, हमें इस पर ध्यान देना चाहिए। मूल्यवत्ता बनाए रखने में शरीर का भी योगदान है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने तीन शरीर बताए हैं – स्थूल शरीर, यश शरीर और धर्म शरीर। जिस व्यक्ति का धर्म शरीर पुष्ट हो जाता है, प्रथम दो शरीर स्वतः ही पुष्ट हो जाते हैं। अतः हमें इस शरीर पर विशेष ध्यान देना चाहिए। क्षमा, सरलता, विनम्रता, अभय, मैत्री आदि गुणों से धर्म शरीर पुष्ट होता है; हमें इन गुणों के विकास पर ध्यान देना चाहिए।
आज मुख्य प्रवचन कार्यक्रम के दौरान छत्तीसगढ़ के राज्यपाल रामेन डेका पहुंचे। उन्होंने आचार्यश्री को वंदन कर आशीर्वाद प्राप्त किया। आचार्यश्री ने प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि हम जैन धर्म के अनुयायी हैं। हमारा साधुता का जीवन बहुत उच्च कोटि का होता है। हम अपनी यात्रा में सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति की प्रेरणा दे रहे हैं। ये तीनों यदि लोगों के जीवन में रहें, तो जीवन अच्छा हो सकता है। देश और राज्य में नैतिक मूल्य बने रहें। राज्यपाल महोदय का भी धार्मिक एवं आध्यात्मिक संदर्भों में खूब विकास होता रहे – यह काम्य है। छत्तीसगढ़ के राज्यपाल रामेन डेका ने अपनी भावाभिव्यक्ति देते हुए कहा कि भले ही जैन श्वेतांबर तेरापंथ की संख्या छोटी है, किन्तु देश की अर्थव्यवस्था और धार्मिक क्षेत्र में आपका योगदान बहुत बड़ा है। आप लोग अहिंसा में विश्वास करते हैं। आचार्यश्री जन-जन को अहिंसा और नशामुक्ति की प्रेरणा दे रहे हैं। हम सभी को अच्छे मार्ग पर चलने का प्रयास करना चाहिए, जिससे समाज और देश का विकास हो सके।
आचार्यश्री राज्यपाल महोदय से वार्तालाप के लिए पधारे। तब तक साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि धर्म का आचरण व्यक्ति को तब करना चाहिए जब इंद्रियां क्षीण न हों, शरीर रोगग्रस्त न हो और शरीर पर बुढ़ापा आक्रमण न करे। धर्म का चिंतन करना चाहिए। कई लोग वृद्धावस्था में धर्म करने की बात करते हैं, पर कौन जानता है कि वृद्ध बनेंगे या नहीं। अतः हमें धर्म का प्रारंभ स्वस्थ अवस्था में ही कर देना चाहिए। मुनि मदनकुमारजी ने तपस्या की जानकारी दी। कांकरियाण-मणिनगर ज्ञानशाला की संयोजिका सावित्री लूणिया ने अपनी अभिव्यक्ति दी और ज्ञानशाला के बच्चों ने अपनी प्रस्तुति दी। तुलसी अमृत निकेतन कानोड़ के संचालक ने अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने मंगल आशीर्वाद प्रदान किया।