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विकास के शिखर पुरुष थे गुरुदेव तुलसी
आचार्य तुलसी विकास पुरुष थे। वे सभी को साथ लेकर चलते थे। उन्होंने मर्यादा को कायम रखते हुए समाज की कुरीतियों को दूर करने का कार्य किया। आचार्य तुलसी अनेक बार कहा करते थे – “धर्मगुरु तो आप मुझे कहें या न कहें, लेकिन मैं साधक हूं और समाज-सुधारक हूं।” उनकी साधना व्यक्तिगत स्तर तक सीमित नहीं थी। उन्होंने अध्यात्म और साधना को सार्वजनिक जीवन में प्रतिष्ठित करने का महनीय कार्य किया। गुरुदेव तुलसी और विकास एक-दूसरे के पूरक थे। विकास के माध्यम से अध्यात्म की उर्मियों को फैलाना आचार्य तुलसी का परम लक्ष्य था और उन्होंने इस लक्ष्य को सफलतापूर्वक साकार किया। ये शब्द मुनि विनयकुमारजी 'आलोक' ने अणुव्रत भवन के तुलसी सभागार में 32वें विकास महोत्सव की सभा को संबोधित करते हुए कहे। मुनिश्री ने आगे कहा – आचार्यश्री की साधना और क्षमताओं का जीवंत इतिहास है। इस इतिहास को एक सूत्र में पिरोना और इसकी विशद विवेचना करना बहुत कठिन कार्य है।