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पर्युषण महापर्व के उपलक्ष्य में विविध आयोजन
पर्युषण महापर्व के अवसर पर मुनि अर्हत कुमार जी ने जनसैलाब को संबोधित करते हुए कहा कि खाद्य संयम अत्यंत आवश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति का शरीर ही उसका मुख्य साधन होता है और उसके लिए भोजन आवश्यक है। हमारा आहार सात्विक होना चाहिए। हम स्वाद के लिए नहीं, बल्कि साधना के लिए खाएं। खाने के लिए जीने वाला संसारी होता है, जबकि जीने के लिए खाने वाला साधक कहलाता है। स्वाध्याय दिवस के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा गया कि स्व का अध्ययन करना ही स्वाध्याय है। स्वाध्याय वह दर्पण है जिसमें मनुष्य अपने रूप को देखकर उसे संवार सकता है। इसकी प्रतिदिन साधना करने से व्यक्ति ज्ञानरूपी अमृत से स्वयं को आप्लावित कर सकता है। सामायिक दिवस पर मुनिश्री ने बताया कि जिस क्रिया से समता की प्राप्ति और ममता की समाप्ति होती है, उसे सामायिक कहते हैं। सामायिक आध्यात्मिक चेतना के जागरण का प्रयोग है और आत्मशुद्धि की विलक्षण प्रक्रिया है।
वाणी संयम दिवस पर कहा गया कि वाणी में मिठास हो तो स्थान अपने आप मिल जाता है। वाणी में हर समस्या का समाधान छिपा है। अपनी वाणी को इष्ट, शिष्ट और मिष्ट बनाएं। अणुव्रत दिवस के अवसर पर बताया गया कि अणुव्रत प्रदर्शन का नहीं, आत्मदर्शन का मार्ग है। भ्रष्टाचार की बढ़ती धारा को रोकने के लिए आचार्य तुलसी ने अणुव्रत का शंखनाद किया। इसे अपनाकर व्यक्ति अशांत जगत में भी शांति प्राप्त कर सकता है। जप दिवस पर मुनिश्री ने कहा कि जप विघ्न-विनाशक, शांतिदायक और मंगलकारक है। इसके लिए एकाग्रता, तल्लीनता और उच्चारण की शुद्धता अत्यंत आवश्यक है। यदि हम पवित्र भाव से जप करेंगे तो हमारे मन की निर्मलता हमें अद्भुत सिद्धियां प्रदान करेगी।
ध्यान दिवस पर ध्यान के महत्व को रेखांकित करते हुए बताया गया कि जैन दर्शन में ध्यान की अत्यंत महत्ता है। अध्यात्म में ध्यान की प्रमुख भूमिका है। मेडिटेशन ही सर्वोत्तम मेडिसिन है। ध्यान तन को निरोग, मन को निश्चल और चेतना को निर्मल बनाता है। भगवती संवत्सरी महापर्व का महत्व स्पष्ट करते हुए कहा गया कि यह दिन स्वयं को निहारने, आत्मा से मुलाकात करने और स्वयं को स्वयं से जोड़ने का दिन है। पर्व तो बहुत आते हैं, पर महापर्व केवल एक ही है, क्योंकि यह हमें खुद से जोड़ता है और फिर हमें खुदा बना देता है। आज के दिन हमें सोचना चाहिए कि क्या हमने अपने मन को बुहारा, उसमें पड़ी गांठों को खोला और आत्मा को पूर्ण रूप से निर्मल बनाने का प्रयास किया या नहीं। मुनि भरतकुमारजी ने कालचक्र, तीर्थंकर जीवन और भगवान महावीर के जीवन पर प्रकाश डाला। मुनि जयदीपकुमारजी ने अंतगढ़ सूत्र का वाचन किया। रात्रिकालीन प्रवचनों में विविध विषयों पर उद्बोधन हुआ। सातों दिन अखंड जप भी गतिमान रहा।